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________________ • ३७६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड ++ ++ ++ +++++++ ++++++++++++ ++. + ++ + S ++ + ++ + + ++ + + ++ ++ ++ ++++ ++ ++ + + + + + ++ ++ + ++ ++ अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, धूप, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श ये सभी पुद्गलों की विविध परिणतियां हैं। ये कभी मिलते हैं और कभी भिन्न होते हैं । पुद्गल के सप्रदेशी होने से अस्तिकाय में उसकी परिगणना की गयी है। कितने ही पुद्गल एक प्रदेशी, दो प्रदेशी, संख्यात-असंख्यात अनन्त प्रदेशी भी होते हैं। जैन साहित्य में पुद्गल के अष्टस्पर्शी और चतुःस्पर्शी-ये दो भेद किये गये हैं। जिनमें वर्ण, गन्ध, रस, संस्थान के साथ अष्ट स्पर्श होते हैं वे अष्टस्पर्शी पुद्गल कहलाते हैं और जिनमें शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष ये चार स्पर्श पाये जाते हैं वे चतुःस्पर्शी कहलाते हैं । पुद्गल के स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु-ये चार भेद हैं । अणुओं का समुदाय स्कन्ध है । स्कन्ध के बुद्धिकल्पित भाग को देश कहते हैं । स्कन्ध या देश में मिले हुए अति सूक्ष्म विभाग जिसका पुनः विभाग न हो सके वह प्रदेश है। पुद्गल का सबसे सूक्ष्म अविभाज्य अंश परमाणु है। जब तक वह स्कन्धगत है तब तक वह प्रदेश है और स्कन्ध से अलग होने पर वह परमाणु कहलाता है । वह भी एक वर्ण, एक गन्धं, एक रस, और दो स्पर्श वाला होता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से भी पुद्गल के चार भेद होते है। द्रव्य से वह अनन्त द्रव्य रूप है, क्षेत्र से वह लोकाकाश पर्यन्त व्याप्त है, काल से वह आदि-अन्त रहित है और भाव से वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श सहित है। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की दृष्टि से पुद्गल पर शास्त्रकारों ने गहराई से चिन्तन किया है और उसके ५३० भेद बताये हैं। पुद्गल सारे लोकाकाश में भरे पड़े हैं । वे सूक्ष्म भी हैं और बादर भी। परमाणु से लेकर चतुस्पर्शी स्कन्ध तक सभी पुद्गल सूक्ष्म हैं। कार्मण वर्गणा, मनोवर्गणा के पुद्गल इसी कोटि में आते हैं। पुद्गल रूपी है, यह हम पूर्व ही बता चुके हैं । इसलिए सूक्ष्म पुद्गलों को विशिष्ट ज्ञानी ही देख सकते हैं । जब परमाणु से स्कन्ध बनता है तब वे सूक्ष्म पुद्गल इन्द्रियगोचर हो जाते हैं। पुद्गलों में जीव के पारस्परिक परिणति की दृष्टि से तीन प्रकार की परिणतियों होती हैं (१) प्रयोग परिणत-जीव की प्रेरणा से मन, वचन, काया से की जाने वाली समस्त चेष्टाओं से नाना द्रव्यों के रूप में परिणत होने वाले पुद्गल । (२) मिश्र परिणत पुद्गल-जीव के द्वारा केश, नाखून, मल-मूत्र तथा मृत-शरीर आदि के रूप में परित्यक्त पुद्गल । (३) विस्रसा परिणत-जिन पुगलों में जीव का सहाय नहीं है और स्वयं परिणत है वैसे पुद्गल जैसे बादल, इन्द्रधनुष । जीव और पुद्गल दोनों का सम्बन्ध अनादिकाल से है । पूर्व पुद्गल निर्जरित होने पर नये पुद्गलों को वह ग्रहण करता है। जीव और पुद्गलों का सम्बन्ध ही संसार है । जीव का संसार में परिभ्रमण का मूल कारण ही पुद्गल रहा हुआ है । जीव के साथ पुद्गल से सम्बन्धित आठ श्रेणियाँ इस प्रकार हैं (१) औदारिक वर्गणा-स्थूल शरीर के निर्माण में काम आने वाले योग्य पुद्गल । (२) वैक्रिय वर्गणा-विविध रूप बनाने में काम आने वाले पुद्गल । (३) आहारक वर्गणा-आहारक शरीर के निर्माण में काम आने वाले पुद्गल । (४) तेजस वर्गणा-विद्युत् परमाणु समूह । (५) कार्मण वर्गणा-कर्म रूप में परिणत होने वाले पुद्गल । (६) भाषा वर्गणा-भाषा के योग्य पुद्गल । (७) मनोवर्गणा-मन रूप में परिणत होने वाले पुद्गल । (८) श्वासोच्छ्वास वर्गणा-जीवों के श्वास और उच्छ्वास में परिणत होने वाले पुद्गल । पुद्गल वर्गणा को बिना ग्रहण किये देहधारी का कार्य नहीं चलता। वह प्रतिपल प्रतिक्षण पुद्गल ग्रहण करता है और परित्याग करता है । सांसारिक आत्मा पुद्गलों से प्रभावित है। जैनदर्शन में पुद्गल परावर्तन काल का वर्णन है जिसका तात्पर्य है-संसार अवस्था में जीव औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस, कार्मण, श्वासोच्छ्वास, मन, वचन, के परमाणुओं को अनेकों बार ग्रहण कर चुका है और उनका परित्याग भी किया है। ऐसे अनेकों पुद्गल परावर्तन इस जीव ने किये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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