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________________ ३७० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड - emamuraritriti.irni.irnimommunit................ .. बरा प्रत्येक परमाणु के अनेक कण हैं। उनमें से कुछ केन्द्र में स्थित हैं और कुछ उस केन्द्र की नाना कक्षाओं में निरन्तर अत्यन्त तीव्र गति से परिभ्रमण करते रहते हैं जैसे कि सूर्य के चारों ओर मंगल आदि ग्रह । केन्द्रस्थ कणों में धन विद्युत है और परिभ्रमणशील कणों में ऋण विद्युत और उन समस्त परमाणुओं को १०३ मौलिक भेदों में इसलिये बाँटा गया कि उनकी संघटना में ऋणाणुओं और धनाणुओं का क्रमिक अन्तर रहता है। ऊपर के उल्लेख से यह स्पष्ट होता है कि वैज्ञानिक मान्य मौलिक तत्त्वों में पहला तत्त्व हाइड्रोजन है । इसमें एक धनाणु (Proton प्रोटोन) और एक ऋणाणु (Electron इलेक्ट्रोन) होता है। धन बिजली का कार्य किसी पदार्थ को अपनी ओर खींचना है और ऋण बिजली पदार्थ को दूर फैकती है । इन दोनों विरोधी कणों का परिणाम हाइड्रोजन अणु है । किन्तु दोनों प्रकार की विद्युत समान होने पर हाइड्रोजन का परमाणु न ऋणात्मक है और न धनात्मक है अपितु तटस्थ स्वभाव वाला है। हाइड्रोजन के बाद दूसरे नम्बर के तत्व का नाम हेलियम है। उसके केन्द्र में दो प्रोटोन और दो इलेक्ट्रोन होते हैं । जो निरन्तर अपने नाभिकण की परिक्रमा करते हैं । इसी प्रकार तीसरे-चौथे, लिकियम, बेरिलियम आदि में क्रमशः एक-एक बढ़ते हुए अणु केन्द्र और कक्षागत हैं। सबसे अन्तिम तत्त्व यूरेनियम में ९२ प्रोटोन नाभिकण में और उतने ही इलेक्ट्रोन विभिन्न कक्षाओं में अपने केन्द्र की परिक्रमा करते हैं । लेकिन हाइड्रोजन परमाणु में एक ही इलेक्ट्रोन है, जिससे कक्षा भी एक है । अन्य परमाणुओं में सभी प्रोट्रोन एकीभूत होकर नाभिकण का रूप ले लेते हैं और इलेक्ट्रोन अनेक टोलियों में सुनिश्चित कक्षायें बनाकर घूमते रहते हैं। " प्रोटोन (धनाणु) भी स्वयं अपने आप में स्वतन्त्र कण न होकर न्यूट्रोन और पोजीट्रोन का सांयोगिक परिणाम है, न्यूट्रोन यानी जिसमें न तो इलेक्ट्रोन की ऋणात्मक बिजली है और न प्रोट्रोन की धनात्मक । अर्थात् यह तटस्थ है। पोजीट्रोन में बिजली की मात्रा तो प्रोटोन के समान ही रहती है, भूतमात्रा इलेक्ट्रोन के बराबर । इस प्रकार आधुनिक पदार्थ विज्ञान ब्रह्माण्ड के उपादान की खोज में अणु अणुगुच्छकों, परमाणु में भटका और अब उसकी यात्रा इलेक्ट्रोन, न्यूट्रोन, पोजीट्रोन की ओर हो रही है। लेकिन इस अन्वेषण का परिणाम अब यह आया कि वैज्ञानिक यह कहने का साहस नहीं कर पा रहे हैं कि हम सूक्ष्मतम उपादान तक पहुंच गये हैं । उनका विश्वास बार-बार बदल रहा है कि कहीं इलेक्ट्रोन आदि सूक्ष्म कणों के अन्दर कोई दूसरा सौर परिवार न निकल आये। विज्ञान मान्य परमाणु को गति जैन दर्शन मान्य परमाणु की अधिकतम और न्यूनतम गति का पूर्व उल्लेख किया गया है कि वह एक समय में कम से कम आकाश के एक प्रदेश से प्रदेशान्तर में गमन, अवगाहन कर सकता है और अधिक से अधिक चतुर्दश रज्ज्वात्मक लोक में। इस न्यूनतम और अधिकतम दो गतियों का उल्लेख कर देने से मध्य की सारी गतियां वह यथाप्रसंग करता रहता है । आधुनिक विज्ञान ने भी अणु परमाणु की ऐसी गतियों को पकड़ लिया है जो साधारण मनुष्य की कल्पना से परे हैं। विज्ञान कहता है कि प्रत्येक इलेक्ट्रोन अपनी कक्षा पर प्रति सेकिण्ड १३०० मील की रफ्तार से गति करता है। गैस और उसी प्रकार के पदार्थों को अणुओं का कंपन इतना शीघ्र होता है कि प्रति सेकिण्ड छह अरब बार टकरा जाता है, जबकि दो अणुओं के बीच का स्थान एक इंच का तीस लाखवां हिस्सा है। प्रकाश की गति प्रति सेकिण्ड १,८६,००० मील है । हीरे आदि ठोस पदार्थों में अणुओं की गति ९६० मील है। इस प्रकार जनदर्शन और विज्ञान, अणु-परमाणु को गतिशील मानने तक तो एक मत है कि परमाणु गति करता है । लेकिन गति के बारे में दोनों में जहाँ साधर्म्य है वहाँ वैधयं भी है । विज्ञान के अनुसार इलेक्ट्रोन सबसे छोटा कण है और उसकी गति गोलाकार में है और जैनदर्शन के अनुसार परमाणु की स्वाभाविक गति आकाश प्रदेशों के अनुसार सरल रेखा में है और वैभाविक गति वक्र रेखा में । परमाणु का समासीकरण जैनदर्शन में बताया है कि परमाणु में सूक्ष्म परिणामावगाहन शक्ति है । जिससे थोड़े से परमाणु एक विस्तृत आकाश खण्ड को घेर लेते हैं और कभी-कभी वे परमाणु घनीभूत होकर बहुत छोटे आकाश देश में समा जाते हैं और वे अनन्तानन्त परमाणु निर्विरोध रूप से उस एक आकाश प्रदेश में रह सकते हैं । पदार्थ की इस सूक्ष्मपरिणति के संबंध में यद्यपि वैज्ञानिकों की पहुंच अभी इस पराकाष्ठा तक नहीं हो सकी है, फिर भी परमाणु की सूक्ष्मपरिणति के बारे में होने वाले वैज्ञानिक प्रयोग जैनदर्शन के विचारों की पुष्टि कर रहे हैं। साधारणतया सोना, पारा, शीशा, प्लेटिनम आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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