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________________ • ३६८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड mmmmmmmmmmmmmmmmm..+++remium++++00kuma.0000-00-00-00-00-000000000000 उक्त कथन में समय और राजू का अर्थ ज्ञातव्य है। यह दोनों जैन पारिभाषिक शब्द हैं। उनमें से समय काल का चरम अंश है। स्थूल रूप से हम उसे इस प्रकार समझ सकते हैं कि हमारी आँखों के पलक को एक बार उठने और गिरने मात्र में असंख्य समय व्यतीत हो जाते हैं। उन असंख्य समयों में से एक अंश में परमाणु लोक के अधोचरमान्त से ऊर्ध्वचरमान्त तक चला जाता है । राजू के बारे में बताया गया है कि कोई देव हजार मन के लोहे के गोले को हाथ में उठाकर अनन्त आकाश में छोड़ दे और वह गोला छह महीने तक अध:पतित होता जाये तो उस अवधि में जितने आकाश देश का अवगाहन करता है, वह एक राजू है। ऐसे चौदह राजुओं की ऊँचाई वाला यह लोक है । अतः एक समय में लोक के इस छोर से उस छोर तक पहुंचने वाले परमाणु की तीव्रतम गति का इससे अनुमान लगाया जा सकता है। परमाणु में जीव निमित्तक कोई क्रिया, गति नहीं हो सकती है। इसका कारण यह है कि परमाणु जीव द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता है तथा पुद्गल को ग्रहण किये बिना पुदगल में परिणमन कराने की जीव में शक्ति नहीं है। परमाणु अप्रतिघाती है । अर्थात् वह अपने अवस्थान से न तो किसी को रोकता है और न स्वयं रुकता है। उसकी अव्याहत, प्रतिघात रहित गति होती है । पर्वत, वज आदि कोई भी उसकी गति में रुकावट नहीं डाल सकते हैं। परमाणु में सूक्ष्मपरिणामावगाहन की विलक्षण शक्ति है । अतएव जिस आकाश प्रदेश में एक परमाणु स्थित है, उसी आकाश प्रदेश में दूसरा परमाणु भी स्वतन्त्रतापूर्वक रह सकता है और उसी आकाश प्रदेश में अनन्त प्रदेशी स्कन्ध भी ठहर जाता है । यह सब सूक्ष्मपरिणामावगाहन शक्ति के कारण सम्भव होता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा परमाणु की सप्रदेशिता और अप्रदेशिता का विचार किया जाये तो परमाणु द्रव्य की अपेक्षा अप्रदेशी है और क्षेत्र की अपेक्षा तो नियमतः अप्रदेशी है अर्थात् एक आकाश प्रदेश का ही अवगाहन करता है, काल की अपेक्षा कदाचित् अप्रदेशी और कदाचित् सप्रदेशी है। यानी एक समय की स्थिति वाला होने से अप्रदेशी और अनेक समय की स्थिति वाला भी होने से सप्रदेशी है । भाव की अपेक्षा कदाचित् अप्रदेशी और कदाचित् सप्रदेशी है, यानी एक अंश गुण वाला भी होता है और अनेक अंश गुण वाला भी । परमाणु की सूक्ष्मता, अभेदता आदि को इस प्रकार समझा जा सकता है कि परमाणु तलवार आदि की धार पर रह सकता है और वहाँ अवस्थित उस परमाणु का छेदन-भेदन नहीं होता है, अग्नि के मध्य में प्रविष्ट होकर भी जलता नहीं है। पुष्कर संवर्तक नामक महामेघ के मध्य भी प्रविष्ट होकर गीला नहीं होता है तथा गंगा नदी के प्रतिस्रोत प्रवाह में प्रविष्ट होकर भी प्रतिस्खलित नहीं होता है और उदगार्वत या उदक् (पानी) बिन्दु में प्रविष्ट होकर भी नष्ट नहीं होता है। विज्ञान पक्ष और पुगल पुद्गल के सम्बन्ध में जैन दार्शनिक पक्ष की संक्षेप में मीमांसा करने के पश्चात् अब वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। अनादिकाल से विश्व को पहचानने के प्रयत्न हो रहे हैं। मानव मस्तिष्क में जिज्ञासा हुई कि यह जगत किन तत्त्वों से निर्मित होता है ? इन तत्त्वों का प्रारम्भ और प्रलय कैसे होता है ? इसी जिज्ञासा के आधार से अनेक दर्शनों का जन्म हुआ। विज्ञान की धारा भी इसी ओर गतिशील है । दर्शनों ने अपनी जिज्ञासा के समाधान के लिए जड़ और चेतन इन दो पदार्थों को केन्द्रबिन्दु बनाया लेकिन विज्ञान के विकास का आधार मौतिक पदार्थ हैं। पहले जिज्ञासा हुई कि इस दृश्यमान जगत में असंख्य प्रकार के पार्थिव पदार्थ भरे पड़े हैं, उन पदार्थों का उपादान कारण क्या है ? और इसके समाधान के लिए पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश इन पांच भूतों की कल्पना उठी और अपने-अपने दृष्टिकोण से वैज्ञानिकों ने उनमें से प्रत्येक को अलग कारण बताया । लेकिन अन्त में इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मूल तत्त्व तो इन पंच भूतों से अतिरिक्त और कोई दूसरा पदार्थ है । ये भूत तो उसके संमिश्रण का परिणाम हैं। इसी चिन्तन के फलस्वरूप विज्ञान के क्षेत्र में परमाणु का प्रवेश हुआ और यह माना जाता है कि परमाणुबाद यूनान की देन है । डेमोक्रेट्स पहला व्यक्ति था, जिसने कहा था-यह संसार शून्य आकाश और अदृश्य, अविभाज्य अनन्त परमाणुओं की एक इकाई है । दृश्य और अदृश्य सभी संगठन परमाणुओं के संयोग और वियोग के ही परिणाम हैं । परमाणु सम्बन्धी उसकी धारणा इस प्रकार है (१) पदार्थ (Matter) संसार में एकाकार नहीं किन्तु विभक्त व्याप्त है। (२) संसारव्यापी समस्त पदार्थपिंड ठोस परमाणुओं से निर्मित हैं। वे परमाणु विस्तृत आकाशन्तर से पृथक् हैं । प्रत्येक परमाणु एक स्वतन्त्र इकाई है। 00 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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