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________________ ३५८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड तो अद्वत की चरम सीमा पर पहुंच गया है। अद्वैत वेदान्त में आत्मा के विषय में लिखा गया है कि 'आत्मा एक नित्य एवं स्वयं प्रकाश है । वह न ज्ञाता है, न ज्ञेय और न अहं ही है। विशिष्टा द्वैत, वैदान्त, आत्मा केवल चैतन्य ही नहीं, ज्ञाता भी है "ज्ञाता अहमर्थ एवात्मा ।" अद्वैत वेदान्त के प्रबल समर्थक शंकराचार्य का मत है-"आत्मा एक अनश्वर सर्वव्यापी सत्-चित् आनंद है। चित् तथा आनंद उसका स्वरूप है । आत्मा ही चरम है तथा ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से परे है। यह दिक्-काल तथा कार्य-कारणत्व के भेद से परे है । यह बौद्धिक ज्ञान से परे शुद्ध चैतन्य है । पंचाध्यायी में भी लिखा है: "अहं प्रत्ययवेद्यत्वात् जीवस्यास्तित्वमन्वयात् ।" प्रत्येक आत्मा में जो अहं प्रत्यय-"#" पने का बोध है, वह जीव के पृथक् अस्तित्व को सूचित करता है। क्षणिकवादी बौद्धदर्शन भी आत्मा की सत्ता को स्वीकार करता है। यद्यपि पश्चात्वर्ती सुप्रसिद्ध दार्शनिक नागार्जुन तथा दिङ्नागादि आत्म-तत्व के सम्बन्ध में आश्चर्यजनक 'शून्यता' जैसी कल्पना करते हुए पाये जाते हैं। फिर भी प्रच्छन्न रूप से आत्मतत्व की स्वीकारोक्ति उनमें भी परिलक्षित होती है । डेविड ह्य म (David Hume) की भाँति बौद्ध भी स्थायी आत्मा को नहीं मानते । इस सिद्धान्त का यह अर्थ है कि स्थायी आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है । वे आत्मा को मानसिक प्रक्रियाओं का क्रम मात्र अथवा विज्ञान सन्तान मानते हैं। जैनदर्शन में आत्मतत्व को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया गया है । आत्मतत्व की पूर्ण विकसित अवस्था को ईश्वरत्व माना गया है । इस दर्शन के अनुसार प्रभात्मा, जीवात्मा ज्ञाता है, मोक्ता भी है और कर्ता भी-अर्थात्-वह जानने वाला, सुखानुभव करने वाला और कर्म करने वाला है। प्रत्येक जीव शरीर और आत्मा की संग्रथित रचना है, जिसमें आत्मा क्रियाशील साझीदार एवं शरीर निष्क्रिय भागीदार है । आत्मा के आयाम है। उसके अगुरूलघु गुण को लेकर संकोच और विस्तार रूप भी है । आत्मा जो संख्या में अनंत है, लोकाकाश में अथवा इस पार्थिव जगत में भी देश के असंख्यस्थलों को घेरती है। आत्मा इन्द्रियों एवं शरीर से सर्वथा भिन्न एक चेतन स्वरूप सत्ता है । आत्मा की स्थिति अपने शरीर की स्थिति के ऊपर निर्भर रहती है । जिस प्रकार एक दीपक चाहे छोटे से छोटे पात्र में रखा जाये, चाहे एक बड़े कमरे में वह सारे स्थान को प्रकाशित करता है, इसी प्रकार जीव भी भिन्न-भिन्न शरीरों के आकारों के अनुकूल रूप से सिकुड़ता और फैलता है । मुक्त आत्माएं इन सबसे ऊपर रहती है । वह शुद्ध-बुद्ध बन कर चिरन्तन स्थिति को पा लेती है । जनदर्शन के अनुसार आत्मा एक अजर अमर अविनाशी तत्व है। आत्मा इनकी दृष्टि में एक स्वतंत्र अस्तित्व वाला द्रव्य है । वह नित्य है, शाश्वत है । आगम साहित्य में आत्म-अस्तित्व के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं"अहं अव्वए वि, अहं अवट्ठिए वि -ज्ञाता सूत्र१५ ___ मैं (आत्मा) अव्यय-अविनाशी हूं, अवस्थित एक रस हूँ। आत्मा ज्ञानमय है । "उवओग एव अहमिक्को" (समयसार ३७) मैं एकमात्र उपयोगमय ज्ञानमय हूँ। वैसे ही अहमिक्को खलु सुद्धो दसणनाणमइयो सदा रूबी। ण वि अत्यि मज्म किंचि वि अण्णं परमाणुमित्त पि ॥ -समयसार ३८ आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्म-अस्तित्व के स्वरूप को दिखाते हुए कहा है-आत्मा में चिन्तन की यह शक्ति निहित है, वही द्रष्टा बनकर यह सोचती है-मैं तो शुद्ध ज्ञानदर्शन स्वरूप सदा काल अमूर्त, एक शुद्ध शाश्वत तत्व हूँ। परमाणु मात्र भी अन्य द्रव्य मेरा नहीं है । इस प्रकार आत्म-अस्तित्व को सूचित करने वाले प्रमाणभूत तत्त्व, यत्र-तत्रसर्वत्र आगम साहित्य एवं प्रकीर्णक साहित्य में पाये जाते हैं । यह आत्मतत्व की मौलिक विचारधारा जो कि अपने आपमें एक विलक्षण स्वरूपवाली होती हुई परिपूर्ण रूप से सत्यमय एवं श्रद्धय रूप है। विश्व को यह जैनदर्शन की अपनी, विलक्षण देन सिद्ध होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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