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________________ जैन-दर्शन में अनेकान्त ३५५ नहीं होता, वह वस्तु का परिणमनशीलपना भली-भांति जानता है। परिणमन के अभाव में वस्तुत्व धर्म समाप्त हो जाता है । जो व्यक्ति इसको नहीं जानता वह दुःखी होता है । संयोग और वियोग का सही स्वरूप जिसे ज्ञात नहीं है, वह अज्ञानी इष्ट वस्तु के संयोग में हर्ष और वियोग में दुःखी होता है । ज्ञाता इससे विपरीत माध्यस्थ भाव धारण करता है, इसी विषय पर स्वामी समन्तभद्र ने लिखा है घट मौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक प्रमोद माध्यस्थ्यं जनोयाति सहेतुकम् ॥ अर्थात्-जैसे सोने के कलश को गलाकर मुकुट बनाया गया तो कलशार्थी को दुःख होगा, मुकुट के इच्छुक को प्रसन्नता होगी, किन्तु जो मात्र स्वर्ण ही चाहता है, उसे न हर्ष होगा, न विषाद, वह मध्यस्थ रहेगा। ___इसी प्रकार लोक में विभिन्न वाद अपनी-अपनी मान्यता को लेकर उपस्थित होते हैं, कोई शून्यवादी है, तो कोई सदेश्वरवादी है, कोई द्वंतवादी है, तो कोई अद्वैत को मानते हैं। कोई नित्यवादी हैं तो कोई सर्वथा अनित्यवादी हैं, क्षणिकवादी हैं । अनेकान्त का ज्ञाता कभी इनसे विवाद नहीं करता, वह अपने अनेकान्त से वस्तु के असली स्वरूप को समझकर नयी विवक्षा लगाता है, और सभी को स्वीकार करता है कि वस्तु कथंचित नित्य भी है, अनित्य भी है, एक भी है, अनेक भी है, द्वंत भी है, अद्वैत भी है, वह सब दशाओं में 'भी' से काम लेता है, 'ही' से नहीं । वह कभी नहीं कहेगा कि वस्तु नित्य ही है, अनित्य ही है । एक ही है, अनेक ही है। अतः स्पष्ट है कि अनेकान्तदर्शन समस्त वादों को मिलाकर वस्तु तत्व को निखारता है। अनेकान्ती जानता है कि वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है, न केवल सामान्य है, तो न केवल विशेष, न सर्वथा भाव स्वरूप है, तो न सर्वथा अभाव रूप, स्वामी समन्तभद्र ने इसी तथ्य को अपने युक्त्यनुशासन में कहा है व्यतीत-सामान्य-विशेषोवा-द्विश्वाऽखिलापाऽर्थ-विकल्पशून्यम् । ख पुष्पवत्स्यावसदेव तत्त्वम् प्रबुद्ध-तत्वाद्भवतः परेषाम् ॥ अर्थात्-एकान्तवादियों का तत्त्व सामान्य और विशेष भावों से परस्पर निरपेक्ष होने के कारण ख पुष्पवत् असत् है । क्योंकि वह भेद व्यवस्था से शून्य है । तत्त्व न सर्वथा सत् स्वरूप ही प्रतीत होता है, और न असत् स्वरूप ही, परस्पर निरपेक्ष सत्, असत् प्रतीति कोटि में नहीं आता, किन्तु विवक्षावशात् अनेक धर्मों से मिश्रित हुआ तत्त्व ही प्रतीति-योग्य होता है। कुछ कहते हैं कि जो वस्तु अस्ति रूप है, वह नास्ति रूप कैसे हो सकती है ? इसी के साथ उभय रूप, अनुभयरूप, वक्तव्य, अवक्तव्य कैसे हो सकती है ? इसका उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है कि उक्त सातों भंग विधि, प्रतिषेध रूप प्रश्न होने पर सही स्थिति में सिद्ध होते हैं। कहा भी है "प्रश्नवशादेकत्र वस्तुनि अविरोधेन विधि प्रतिषेध कल्पना सप्तमंगी।" १. स्यादस्ति २. स्यान्नास्ति ३. स्यादस्ति नास्ति ४. स्याद् वक्तव्य, ५. स्यादस्ति अवक्तव्य ६. स्यान्नास्ति अवक्तव्य ७. स्यादस्तिनास्ति अवक्तव्य-ये सातों भंग विधि-प्रतिषेध कल्पना के द्वारा विरोध रहित वस्तु में एकत्र रहते हैं। और प्रश्न करने पर जाने जाते हैं । वस्तु स्वद्रव्य, श्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा अस्ति रूप है, तो पर-द्रव्य, पर-क्षेत्र, पर काल, पर-भाव की अपेक्षा नास्ति रूप है । उक्त सात मंगों में स्यात् शब्द जागरूक प्रहरी बना हुआ है, जो एक धर्म से दूसरे धर्म को मिलने नहीं देता, वह विवक्षित सभी धर्मों के अधिकारों की पूर्ण सुरक्षा करता है । इस स्यात् का अर्थ शायद या संभावना नहीं है । वक्ता के अभिप्राय के अनुसार एक धर्म प्रमुख होता है, तब दूसरा गौण हो जाता है, इसमें संशय और मिथ्या ज्ञानों की कल्पना भी नहीं है। अन्यमतावलम्बियों ने भी अनेकान्त को स्वीकार किया है, अध्यात्म उपनिषद में भी कहा है भिन्नापेक्षायकत्र, पितपुत्रादि कल्पना । नित्यानित्याद्यनेकान्त स्तयेव न विरोत्स्यते ॥ वैशेषिक दर्शन में कहा है-सच्चासत् । यच्चान्यवसदतस्तदसत् ।' इस प्रकार अन्य दर्शनों में भी अनेकान्त की सिद्धि मिलती है । हमको अनेकान्त दृष्टि द्वारा ही वस्तु ग्रहण करना चाहिए । एकान्त दृष्टि वस्तु तत्त्व का ज्ञान कराने में असमर्थ है । अनेकान्त कल्याणकारी है, और यही सर्वधर्म समभाव में कारणरूप सिद्ध हो सकता है ।इति॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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