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________________ Jain Education International ३३६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड 'पुद्गल' यह 'पुद्' और 'गल' इन दो शब्दों से बना है । पुद् का अर्थ है, पूरा होना या मिलना और गल का अर्थ है, गलना या मिटना । जो द्रव्य प्रतिक्षण बनता तथा बिगड़ता है, उसे 'पुद्गल' कहते हैं ।" ***** 'पुद्गल' के उस सूक्ष्म अंश को 'परमाणु' (परम + अणु) कहते हैं, जिसका दूसरा विभाग न हो सकता हो । १२ स्कन्ध, परमाणु, अन्धकार, छाया, प्रकाश, शब्द आदि सभी पुद्गल की अवस्थाएँ (पर्यायें ) हैं । अर्थात् ये सब पुद्गल के रूप हैं । जैन आगम साहित्य में भी अभेदोपचार से पुद्गलयुक्त आत्मा को पुद्गल कहा है ।" जैन आगम साहित्य में परमाणुओं के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की गई है। आगम साहित्य का बहुमाग परमाणु की चर्चा से सम्बन्धित है। विज्ञान ने भी परमाणु के विषय में बहुत खोज की है । संसारी दशा में पुद्गल और जीव का सम्बन्ध अविच्छेद्य है । पुण्य और पाप तत्त्व - जो आत्मा को पवित्र करता है वह पुण्य है और जो आत्मा को अपवित्र करता है वह पाप है याने शुभकर्म पुण्य है और अशुभ कर्म पाप है ।" धर्म की प्राप्ति, सम्यक् श्रद्धा, सामर्थ्य, संयम और मनुष्यता का विकास भी पुण्य से ही होता है। तीर्थंकर नामकर्म पुण्य का ही फल है। पुण्य मोक्षार्थियों की नौका के लिये अनुकूल वायु है, जो नौका को भवसागर से शीघ्रतम पार कर देती है। आरोग्य, सम्पत्ति आदि सुखद पदार्थों की प्राप्ति पुण्य कर्म के प्रभाव से ही होती है । आत्मा की वृत्तियाँ अगणित हैं, इसलिए पुण्य-पाप के कारण भी अगणित हैं। प्रत्येक प्रवृत्ति यदि शुभ रूप है तो पुण्य का, अशुभ रूप है तो पाप का कारण बनती है । फिर भी व्यावहारिक दृष्टि से उनमें से कुछ एक कारणों का संकेत यहाँ किया जा रहा है। - पुण्य और पाप तत्त्व के भेद- - शुभ कर्मों को तथा उदय में आये हुए शुभ पुद्गलों को पुण्य कहते हैं । पुण्य के कारण अनेक हैं । संक्षेप में दीन-दुखी पर करुणा करना, उनकी सेवा करना, गुणीजनों पर प्रमोद भाव रखना, दान देना, परोपकार करना इत्यादि अनेक भेद किये जा सकते हैं। पुण्योपार्जन के नौ कारण आगमों में बताये हैं । अतः शास्त्रीय दृष्टि से पुण्य के नौ भेद इस प्रकार हैं (१) अन्न पुण्य, (२) पान पुण्य, (३) लयन (स्थान) पुण्य, (४) शयन (क्षय्या) पुष्प, (५) वस्त्र पुण्य, (६) मन पुण्य, (७) वचन पुष्य, (८) काय पुण्य (६) नमस्कार पुण्य । अर्थात् अन्न, जल, औषधि आदि का दान करना, ठहरने के लिए स्थान आदि देना तथा मन से शुभ भावना रखना, वचन से निर्दोष शब्द बोलना, शरीर से शुभकार्य करना एवं देव, गुरु, धर्म को नमस्कार करना । ये सब पुण्य के कारण हैं ।" अशुभ कर्म और उदय में आये हुए अशुभ कर्म पुद्गल को पाप कहते हैं । पाप के कारण भी असंख्य हैं, फिर भी संक्षेप में पाप उपार्जन के निम्नलिखित अठारह कारण माने जाते हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं " (१) हिंसा, (२), (३) चोरी (४) अब्रह्मचर्य, (५) परिग्रह (1) क्रोध (७) मान, (८) माया, (२) लोभ, (१०) राग, (११) द्वेष, (१२) कलह, (१३) अभ्याख्यान (झूठा आरोप लगाना, दोषारोपण करना), (१४) पशुण्य ( चुगली), १५) परनिन्दा, (१६) रति-अरति (पाप में रुचि और धर्म में अरुचि, " (१७) माया - मृषावाद (कपट सहित झूठ बोलना ) और (१८) मिथ्यादर्शन । अध्यात्म की दृष्टि से पुण्य और पाप दोनों बन्धन रूप हैं । अतः मोक्ष -साधना के लिये दोनों हेय माने गये हैं । पुण्य को सोने की बेड़ी कहा गया है और पाप को लोहे की बेड़ी माना गया है। मोक्ष के लिए दोनों ही त्याज्य माने गये हैं । परन्तु पहले पाप छोड़ना चाहिए, बाद में पुण्य । पूर्ण मुक्त होने के लिए और शुद्ध वीतराग भाव प्राप्त करने के लिए पुण्य और पाप से मुक्त होना होगा । आलव- पुण्य-पाप, रूप कर्मों के आने के द्वार 'आस्रव' कहते हैं। आस्रव द्वारा ही आत्मा कर्मों को ग्रहण करती है । मन, वचन, काया के क्रियारूप योग आस्रव है ।" जैसे एक तालाब है, उसमें नाली से आकर जल भरता है । उसी प्रकार आत्मारूपी तालाब में हिंसा, झूठ आदि पाप कार्यरूप नाली द्वारा कर्मरूप जल भरता रहता है यानि कि आत्मा में कर्म के आने का मार्ग आस्रव है । आत्मा में कर्म के आने के द्वार रूप आस्रव के पांच भेद हैं (१) मिथ्यात्व (२) अविरति, (३) प्रमाद, (४) कषाय, (५) योग । मिथ्यात्व - विपरीत श्रद्धा । अधर्म में धर्मबुद्धि, अतत्व में तत्त्व-बुद्धि आदि मिथ्यात्व है । अविरति-त्याग के प्रति अनुत्साह और भोग में उत्साह अविरति है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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