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________________ जनदर्शन में मुक्ति : स्वरूप और प्रक्रिया ३१५ . ६ नाशाम्बरत्वे न सिताम्बरत्वे न तर्कवादे न च तत्त्ववादे । पक्ष सेवाश्रयणेन मुक्तिः, कषायमुक्तिः किल मुक्तिरेव ॥१॥ -हरिभद्र सूरि -मुक्ति न तो दिगम्बरत्व में है, न श्वेताम्बरत्व में, न तर्कवाद में, न तत्त्ववाद में तथा न ही किसी एक पक्ष का सेवन करने में है। वास्तव में कषायों से मुक्त होना ही मुक्ति है। १० कामानां हृदये वासः, संसार इति कीर्तितः। तेषां सर्वात्मना नाशो, मोक्ष उक्तो मनीषिभिः ॥१॥ -हृदय में काम-कामना का होना ही संसार है, इनका समूल नाश मोक्ष होता है । ऐसा मनीषियों ने कहा है। मुक्ति के पर्यायवाचक शब्द अध्यात्म साहित्य में मुक्ति के अनेकों पर्याय-वाचक शब्द उपलब्ध होते हैं । जैनागम श्री औपपातिक सूत्र के सिद्धाधिकार में मुक्ति के १२ नाम लिखे हैं। जैसे १ ईषत्, २ ईषत प्रागभारा, ३ तनू, ४ तनू तनू, ५ सिद्धि, ६ सिद्धालय, ७ मुक्ति, ८ मुक्तालय, ६ लोकाग्र, १० लोकाग्रस्तूपिका ११ लोकाग्र प्रतिबोधना और १२ सर्व प्राण-भूत-जीवसत्त्व-सुखवाहा। मोक्ष प्राप्ति का क्रम जैनधर्म की मान्यतानुसार सम्यगदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की निर्मल, निर्दोष आराधना द्वारा क्रमिक विकास करता हुआ जब यह जीव तेरहवें गुणस्थान में पहुंचता है तो उस समय उसके ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चारों घातीकर्म क्षीण हो जाते हैं। ज्ञानावरणीय कर्म आत्मा के ज्ञान गुण का विनाश करता है, दर्शनावरणीय कर्म दर्शन सामान्य का, मोहनीयकर्म विवेक का और अन्तराय कर्म दानादि लब्धियों का विधात करता है, इसलिए ज्ञानावरणीय आदि चारों घातीकर्म कहलाते हैं। जब जीव तेरहवें गुणस्थान में प्रवेश करता है तो सर्वप्रथम मोहनीय कर्म क्षीण होता है । मोहनीय कर्म के क्षीण होते ही ज्ञानावरणीय आदि तीनों घातीकर्म तत्काल समाप्त हो जाते हैं। इन घातीकर्मों का आत्यन्तिकक्षय हो जाने पर आत्मा में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त चारित्र और अनन्तवीर्य को महाज्योति जगमगा उठती है, तेरहवे गुणास्थान में तो मन, वचन और काया रूप योगों की प्रवृत्ति चलती रहती है, परन्तु जब जीव तेरहवें गुणस्थान को छोड़कर चौदहवें गुणस्थान में प्रविष्ट होता है तो उसकी यह यौगिक प्रवृत्ति भी रुक जाती है । मन का सोचना, वचन का बोलना और काया का हिलना-चलना सब व्यापार समाप्त हो जाता है। चौदहवें गुणस्थान में प्रविष्ट होते ही जीव के अवशिष्ट वेदनीय, नाम, गोत्र और आयुष्य ये चार अधातिककर्म भी समाप्त हो जाते हैं, उस समय आत्मा सर्वथा निष्कर्म हो जाता है। तदनन्तर निष्कर्म आत्मप्रदेश शरीर को छोड़ जाते हैं। जैन दृष्टि से ज्ञानावरणीय आदि कर्म के कारण आत्म-प्रदेश शरीर में आबद्ध रहते हैं, परन्तु जब कर्मों का आत्यन्तिक विनाश हो जाता है, तब ये तत्काल शरीर को छोड़ देते हैं। मुक्त जीव के आत्मप्रदेशों के शरीर से निकलने की भी अपनी एक स्वतन्त्र पद्धति होती है। श्री स्थानाङ्ग सूत्र की मान्यतानुसार जिस आत्मा के आत्मप्रदेश दोनों पाँवों से निकलते हैं, वह नरकगामी होता है, ऐसा जीव नरक गति में जन्म लेता है। दोनों जानुओं से जिसके आत्मप्रदेश निकलते हैं-वह जीव तिर्यञ्च गति में जाता है। वह पशु बनता है, छाती से जब आत्मप्रदेश निकलते हैं तब जीव को मनुष्य गति की प्राप्ति होती है। मस्तक से जिस जीव के आत्मप्रदेश निकलते हैं, उस जीव की उत्पत्ति देव लोक में होती है और जब जीव के आत्म प्रदेश समूचे अंगों से निकलते है, तब वह जीव सिद्धगति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है। भारतीय दर्शनों में मुक्ति और मुक्ति के साधन दर्शन शब्द के ज्ञान, चिन्तन, विश्वास आदि अनेकों अर्थ उपलब्ध होते है। परन्तु दर्शन शब्द का जब शास्त्र के साथ प्रयोग होता है तब इसका-"वास्तविक तत्त्व ज्ञान या तत्त्व सम्बन्धी मान्यता" यह अर्थ होता है। दोनों का सम्मिलित अर्थ होता है-जिससे तत्व सम्बन्धी गूढ रहस्यों का ज्ञान प्राप्त हो, उस शास्त्र को दर्शन-शास्त्र कहते हैं। दर्शन-शास्त्रों के निर्माताओं की विभिन्नता होने से दर्शन-शास्त्र भी अनेकों उपलब्ध होते हैं । दर्शन-शास्त्र की अनेकता के कारण ही मुक्ति-तत्व की मान्यता को लेकर अनेकों विचार उपलब्ध होते हैं। जैसे-जैनदर्शन में ज्ञानाबरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, अन्तराय, आयुष्य, नाम और गोत्र इन आठ कर्मों के सर्वथा क्षीण हो जाने का नाम मुक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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