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________________ ३०० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड का विषय है, फिर भी मुख्य रूप से मन का विषय श्रु तज्ञान ही है। क्योंकि मन किसी भी विषय का ग्रहण इन्द्रियों के माध्यम से ही करता है । मन को अप्राप्यकारि कहा है । संक्षेप में मन का इतना ही स्वरूप है। पर्याप्ति का स्वरूप जीव के चौदह भेदों में कहा गया था, कि पर्याप्त और अपर्याप्त । यहाँ प्रश्न होता है, कि पर्याप्त किसको कहते हैं ? और अपर्याप्त किसको कहते हैं ? सामान्य रूप से इस प्रश्न का उत्तर है, कि जो पर्याप्ति सहित हो, वह पर्याप्त तथा जो पर्याप्ति सहित न हो, वह अपर्याप्त ।। पर्याप्ति आत्मा की एक शक्ति है, और वह शक्ति पुद्गलों के उपचय से प्राप्त होती है । जिस शक्ति के द्वारा जीव पुद्गलों का आहरण करके उन्हें शरीर रूप में, इन्द्रिय रूप में, श्वास एवं उच्छ्वास रूप में, भाषा रूप में और मन रूप में परिणत करता है, उसे पर्याप्ति कहते हैं । जीव अपने उत्पत्ति स्थान पर पहुँच कर प्रथम समय में जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है, और उसके बाद भी जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है, उन सबको शरीर, इन्द्रिय आदि रूपों में परिणत करता रहता है । पुद्गल परिणमन की इस शक्ति को ही पर्याप्ति कहा जाता है । पर्याप्ति के भेद पर्याप्ति के छह भेद इस प्रकार हैं-आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और मनःपर्याप्ति । जिस शक्ति से जीव आहार ग्रहण करके उसे खल और रस रूप में परिणत करता है, उसे आहार पर्याप्ति कहते हैं । खल का अर्थ है-शरीर की रचना में अनुपयोगी एवं असार भाग । रस का अर्थ है-शरीर पोषण करने वाला द्रवित पदार्थ । जीव अपने भवान्तर की उत्पत्ति के प्रथम समय में जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है, उसी समय उन पुद्गलों में ग्रहण किए आहार को खल और रस रूप में परिणत करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है, इसी को आहार पर्याप्ति कहते हैं । यहाँ पर आहार पर्याप्ति का सामान्य कारण प्रथम समय में ग्रहण किए पुद्गल हैं और परिणमन शक्ति की उत्पत्ति कार्य है । कारण और कार्य दोनों यहाँ पर एक समय में होते हैं । शरीर पर्याप्ति क्या है ? जिस शक्ति से रस रूप में परिणत आहार को जीव रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य रूप सप्त धातुओं में परिणत करता है, वह शरीरपर्याप्ति है। इन्द्रियपर्याप्ति क्या है ? जिस शक्ति से शरीर में से इन्द्रिय योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके इन्द्रिय रूप में परिणत किया जाय, वह इन्द्रियपर्याप्ति है । श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति क्या है ? जिस शक्ति से श्वासोच्छ्वास वर्गणा में से पुद्गलों को ग्रहण करके श्वासोच्छ्वास रूप में परिणत किया जाए, वह श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति है । भाषा पर्याप्ति क्या है ? जिस शक्ति से भाषा वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके भाषा रूप में परिणत किया जाए, वह भाषापर्याप्ति है। मनःपर्याप्ति क्या है ? जिस शक्ति से मनोवर्गणा में से पुद्गलों को ग्रहण करके मनोरूप में परिणत किया जाए, वह मनः पर्याप्ति है । ये छह पर्याप्ति हैं। पर्याप्तियों के प्रारम्भ और समाप्ति का क्या विषय है ? इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जाता है, कि प्रारम्म तो सबका एक साथ ही होता है, किन्तु समाप्ति सबकी अलग-अलग होती है । पहले आहार पर्याप्ति पूर्ण होती है, फिर क्रमशः शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनःपर्याप्ति पूर्ण होती है। पूर्व की अपेक्षा उत्तर पर्याप्ति सूक्ष्म, सूक्ष्मतर एवं सूक्ष्मतम होती जाती है । कल्पना कीजिए छह व्यक्ति एक साथ सूत कातने के लिए बैठे, तो जो बारीक कातता है, उसे उसकी अपेक्षा अधिक समय लगेगा, जो मोटा कातता है। आहार पर्याप्ति सबसे स्थूल है, और मनःपर्याप्ति सबसे सूक्ष्म है। पर्याप्ति पूर्ण होने में कितना काल लगता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि औदारिक शरीर की अपेक्षा से आहार पर्याप्ति एक समय में पूर्ण हो जाती है । उसके बाद शरीर आदि पर्याप्ति अनुक्रमशः एक-एक अन्तर्मुहूर्त के बाद पूर्ण हो जाती हैं । कहने का अभिप्राय यह है कि आहार पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद अन्तर्मुहूर्त में शरीर पर्याप्ति पूर्ण हो जाती है । फिर इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनःपर्याप्ति में भी एक-एक अन्तर्मुहूर्त लगता है । यही क्रम वैक्रिय शरीर और आहारक शरीर का भी रहता है । अन्तर केवल इतना ही है, कि वैक्रिय और आहारक शरीर में आहार पर्याप्ति के अन्तर्मुहूर्त बाद में शरीरपर्याप्ति पूर्ण होती है, और फिर इन्द्रिय आदि शेष पर्याप्ति एक-एक समय में पूर्ण होती जाती है। यह पर्याप्तियों का काल क्रम है। किस जीव के कितनी पर्याप्तियाँ होती हैं ? इसके उत्तर में कहा जाता है, कि एकेन्द्रिय जीवों के चार पर्याप्तियाँ होती हैं—आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास । विकलेन्द्रिय जीवों के और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों के पाँच पर्याप्तियां होती है-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास और भाषा। संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों के छह पर्याप्तियाँ होती हैं-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन । पहली तीन पर्याप्तियाँ-आहार, शरीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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