________________
जैन दर्शन में जीव तत्त्व
२९७ .
__
Ta के चौदह भेद नामकर्म के उदय-प्रमाण सम्रा पर्वत ।
हैं। जैसे पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय । जिन जीवों को बस नामकर्म का उदय हो, वे त्रस हैं। जैसे द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर पञ्चेन्द्रिय जीव तक।
पृथ्वीकाय जीव कौन-से हैं । मिट्टी, खान में रहे हुए स्फटिक, मणि, रत्न, हिंगुल, हरताल, अभ्रक, सुवर्ण, रजत और पत्थर आदि । खान से निकलने पर, अग्नि एवं अन्य विजातीय पदार्थ का संयोग होने पर ये निर्जीव हो जाते हैं । अप्काय जीव कौन-से हैं ? कूप, सरोवर, नदी, हिम, वर्षा और ओस आदि का जल। तेजस्काय जीव कौन-से हैं । अग्नि, अंगार, ज्वाला, उल्कापात और आकाशीय विद्युत आदि । वायुकाय जीव कौन-से हैं। उद्भ्रामक, उत्कलिका, चक्रवात एवं वायु आदि । वनस्पतिकाय जीव कौन-से हैं । वृक्ष, लता, फल, फूल और बीज आदि । वनस्पतिकाय के दो भेद हैं-साधारण और प्रत्येक । जिस वनस्पतिकाय के एक शरीर में अनन्त जीव हों, वह साधारण। जैसे कन्द, मूल, शैवाल, गाजर, मूली एवं आलू-आदि। अनन्त जीवों का एक शरीर होने से इसे अनन्तकाय भी कहते हैं। जिस वनस्पति के एक शरीर में एक जीव हो, वह प्रत्येक कहलाती है। जैसे फल, फूल, लता, वृक्ष, छाल एवं पत्ता आदि । त्रस काय के चार भेद हैं—नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य, और देव ।
चतुर्दश विध जीव : किसी अपेक्षा से जीव के चौदह भेद होते हैं। जैसे एकेन्द्रिय जीव के चार भेद, पञ्चेन्द्रिय जीव के चार भेद और विकलेन्द्रिय जीव के छह भेद । एकेन्द्रिय के चार भेद कौन-से हैं ? सूक्ष्म और बादर । सूक्ष्म का पर्याप्त और अपर्याप्त । बादर का पर्याप्त और अपर्याप्त । पञ्चेन्द्रिय के चार भेद कौन-से हैं ? संज्ञी और असंज्ञी । संज्ञी का पर्याप्त और अपर्याप्त । असंज्ञी का पर्याप्त और अपर्याप्त । विकलेन्द्रिय के छह मेंद कौन-से हैं ? द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय । इन तीन का पर्याप्त और अपर्याप्त इस प्रकार जीव के चौदह भेद होते हैं।
सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव का स्वरूप क्या है ? सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर चर्मचक्षु से देखा नहीं जा सकता है, वह सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव है। ये सूक्ष्म जीव चतुर्दश रज्जु-प्रमाण सम्पूर्ण लोक में सर्वत्र परिव्याप्त हैं । इस लोक में एक भी ऐसा स्थान नहीं है, जहां सूक्ष्म जीव न हों। वे इतने सूक्ष्म हैं, कि पर्वत की कठोर चट्टान में से भी आर-पार हो जाते हैं । किसी के मारने पर भी वे मरते नहीं हैं। विश्व की कोई भी वस्तु उनका घात-प्रतिघात नहीं कर सकती। प्रत्येक वनस्पति को छोड़कर साधारण वनस्पति एवं पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय के ये सूक्ष्म जीव हैं । साधारण वनस्पतिकाय के सूक्ष्म जीवों को सूक्ष्म निगोद भी कहते हैं। निगोद का अर्थ है-साधारण वनस्पतिकाय का शरीर । इस विश्व में असंख्य गोलक हैं। एक-एक गोलक में असंख्यात निगोद हैं। एक-एक निगोद में अनन्त जीव हैं। अथवा व्यवहार में न आने के कारण इनको अव्यवहार-राशि के जीव भी कहा जाता है। इनका आयुष्य अन्तमुहूर्त होता है।
बादर नाम कर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर अनेकों के मिलने से चर्म चक्षु से देखा जा सके, वे बादर एकेन्द्रिय जीव हैं। पाँच स्थावरकाय के भेद से इसके पाँच भेद हैं। ये विश्व के एवं लोक के नियत देश में ही मिलते हैं; सर्वत्र नहीं । बादर बनस्पतिकाय के प्रत्येक और साधारण दो भेद हैं । बादर साधारण वनस्पतिकाय को बादर निगोद भी कहते हैं। इसमें भी अनन्त जीव होते हैं। इन सबके एक स्पर्शन इन्द्रिय है। अतः इन जीवों को एकेन्द्रिय जीव कहते हैं।
विकलेन्द्रिय के तीन भेद हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय । द्वीन्द्रिय का अर्थ है-दो इन्द्रिय वाले जीव दो इन्द्रिय कौन-सी हैं ? स्पर्शन और रसन । त्रीन्द्रिय का अर्थ है-तीन इन्द्रिय वाले जीव । तीन इन्द्रिय कौन-सी हैं ? स्पर्शन, रसन और घ्राण । चतुरिन्द्रिय का अर्थ है-चार इन्द्रिय वाले जीव । चार इन्द्रिय कौन-सी हैं ? स्पर्शन, रसन, घ्राण एवं चक्षु । इनमें से प्रत्येक का पर्याप्त और अपर्याप्त मिलाकर के विकलेन्द्रिय जीव के छह भेद होते हैं । विकलेन्द्रिय का अर्थ है, जिसके सम्पूर्ण इन्द्रिय न हों। दूसरे शब्दों में दो इन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक के जीवों को विकलेन्द्रिय कहते हैं। द्वीन्द्रिय जीव जैसे- शंख । त्रीन्द्रिय जीव जैसे-कीड़ा-मकोड़ा। चतुरिन्द्रिय जीव जैसे-भ्रमर-बिच्छु आदि ।
संज्ञी के भेद पञ्चेन्द्रिय जीव के दो भेद हैं-संज्ञी और असंज्ञी । संज्ञी को समनस्क और असंज्ञी को अमनस्क भी कहते हैं । संज्ञा और मन-दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में किया गया है । क्या संज्ञा और मन एक ही हैं ? अथवा दोनों मिन्न-भिन्न हैं। इस विषय पर आगे विचार किया जाएगा। पहले इस बात को समझने का प्रयत्न होना चाहिए, कि संजी और असंज्ञी शब्द का अर्थ क्या है ? जिस जीव में संज्ञा हो, वह संज्ञी होता है । जिस जीव में संज्ञा न हो, वह असंज्ञी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org