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________________ M . २९२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्व खण्ड नहीं करता है ? इसका समाधान यह है कि जीव अमूर्त होने के कारण स्वभावतः ऊर्ध्वगमन स्वभावी होता हुआ भी संसारी अवस्था में कर्मों के भार से संयुक्त है। अत: कर्मभार से अवनत होने के कारण आयुष्य कर्मरूप रस्सी से जिधर भी खींचा जाता है, उधर को ही चला जाता है । जीव का शुद्ध स्वभाव तूंबी के समान है। तूंबी अपने स्वभाव से तो जल की सतह पर ही रहती है, परन्तु मिट्टी का लेप लगने पर वह नीचे की ओर चली जाती है। इसी प्रकार जीव स्वभाव से ऊर्ध्वगमनशील है, किन्तु कर्मों के लेप के कारण वह नीचे की ओर जाता है। सिद्ध का स्वरूप : सकल-कर्म-विकल जीव को सिद्ध कहते हैं। अष्टविध कर्म क्षय करके सिद्ध होने के कारण वह आठ गुणों वाला होता है । सिद्ध लोक के अग्र भाग पर स्थित हैं । अतः लोक के अग्रभाग को सिद्धक्षेत्र और सिद्ध-शिला कहते हैं। मध्य लोक के जिस भाग से जीव सिद्ध होते हैं, उसका व्यास पैंतालीस लाख योजन का है । अतः सिद्ध-शिला भी उतनी ही विस्तृत है । क्योंकि सिध्यमान जीव धनुष से छूटे तीर के समान सीधे ऊपर की ओर जाते हैं, इधर-उधर की विदिशा में उनका गमन नहीं होता है। यदि सिध्यमान आत्मा का स्वभाव ऊर्ध्वगमन ही है, तो फिर वह लोक के अग्रभाग पर ही क्यों ठहर जाता है, अलोक में क्यों नहीं जाता? इसका उत्तर यह है कि अलोक में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय न होने के कारण आत्मा अलोक में गमन नहीं कर सकता । ये दोनों लोक के अग्रभाग तक ही है । अत: सिद्ध आत्मा लोक के अग्रभाग पर स्थित रहते हैं । सिद्धों के भेद और उनके स्वरूप का विशेष प्रतिपादन मोक्ष तत्त्व में किया जाएगा । यहाँ केवल स्वरूप का संक्षेप में कथन किया है। संसारस्थ जीव: ___ अष्ट विध कमों से बद्ध जीव को संसारस्थ कहते हैं । जो जीव अभी भव-बन्धनों में बद्ध है, वह संसारी है। संसार का कारण है-कषाय भाव । जब तक जीव कषाय-युक्त है, वह मुक्त नहीं हो सकता है। और जब तक वह मुक्त नहीं होता, वह संसारस्थ कहलाता है। कर्मबद्ध आत्मा संसारी है । प्रश्न होता है कि आत्मा तो अमूर्त है, फिर मूर्त कर्म के साथ उसका बन्ध क्यों और कैसे होता है ? इस प्रश्न का समाधान यह कहकर दिया गया है, कि आत्मा अपने मूल स्वरूप से तो अमूर्त है, परन्तु मूर्त कर्म के साथ उसका सम्बन्ध होने से व्यवहार नय से आत्मा भी मूर्त कहा जाता है। यह संसारस्थ जीव का स्वरूप है। जीव के लक्षण और स्वरूप का प्रतिपादन यहाँ पर विभिन्न दृष्टियों से किया गया है । कर्म और अकर्म के आधार पर ही जीव को संसारी और सिद्ध कहा जाता है। वस्तुतः जीव तो जीव है, वह न तो संसारी है, और न सिद्ध । संसारी और सिद्ध ये जीव की पर्याय विशेष हैं। कर्म सहित आत्मा संसारी और कर्म रहित आत्मा सिद्ध । कर्म एक उपाधि है, जिसके सद्भाव और असद्भाव से आत्मा संसारी एवं सिद्ध पर्याय वाला होता है। आत्मा की सत्ता को सभी स्वीकार करते हैं । भले ही उसके स्वरूप में विवाद हो । स्व संवेदन प्रत्यक्ष से आत्मा स्वयं सिद्ध है । "मैं हूँ" अथवा "मैं विचार करता हूँ।" इस सत्य एवं तथ्य से कोई भी इन्कार नहीं कर सकता । आत्मा और जीव की संख्या के सम्बन्ध में मतभेद है-जैनदर्शन आत्माओं को अनन्त मानता है । अनन्त आत्माओं का वर्णन कैसे किया जाए? इसके लिए अनेक पद्धतियों का आश्रय लेकर, आत्माओं के स्वरूप का कथन इस प्रकार से किया गया है । जीव के भेद : जीव अनन्त हैं । सिद्ध जीव भी अनन्त हैं, क्योंकि अनन्त काल से जीव सिद्ध होते रहे हैं। संसारस्थ जीव भी अनन्त हैं। संसार के अनन्त जीवों का कथन किसप्रकार किया जाए? इसके लिए आचार्यों ने संसारी जीवों के स्वरूप को समझाने के लिए अनेक प्रकार से जीवों के भेद एवं वर्गीकरण किया है । जीवों के भेदों का कथन तीन प्रकार से किया गया है-संक्षेप से, विस्तार से और मध्यम रूप से । संक्षेप की अपेक्षा जीव का भेद एक है, विस्तार की अपेक्षा जीव के भेद पाँच-सौ सठ हैं, और मध्यम रूप से जीव के भेद चौदह भी हैं। एक विध जीव: चेतना गुण की अपेक्षा से जीव का भेद एक है । चेतना गुण जीव का असाधारण धर्म है। चेतना सर्वजीवों में उपलब्ध होती है। जीव मात्र का यह लक्षण है । परम संग्रह नय की दृष्टि में जिसमें चेतना है, वह जीव है। फिर भले ही वह सिद्ध हो, या संसारस्थ हो । चेतना सिद्ध में भी है, और संसारी में भी है । चेतना की दृष्टि से सिद्ध में और संसारी जीव में किसी प्रकार का भेद नहीं है । अत: चेतना गुण की अपेक्षा से अथवा परम संग्रह नय की दृष्टि से जीव ०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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