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________________ । २६४ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड mmmmmanene +++++ormer +++++++++++++++++++++++++++ ++++++++++ जो कभी राज्य करता था वह आज भी राजा है-यह प्रयोग असत्य माना जायेगा और भ्रामक भी। अतएव निक्षेप दृष्टि की अपेक्षाओं को विस्मृत नहीं किया जा सकता। यह विधि अपने में जितनी गम्भीरता लिये हुए है, उतनी ही व्यावहारिक भी है । जैसे कि नाम-एक निर्धन व्यक्ति को लक्ष्मीनारायण कहते हैं । स्थापना-एक पाषाण प्रतिमा को भी लोग देव कहते हैं। द्रव्य-जिसमें कभी घी रखा जाता था, उसे आज भी वी का घड़ा कहते हैं, अथवा भविष्य में कभी घी रखा जाएगा या घी रखने का घड़ा बनने वाला है, वह भी घी का घड़ा कहलाता है। एक व्यक्ति वैद्य है, चिकित्सा करने में निपुण है किन्तु वर्तमान में व्यापार करता है, तो भी लोग उसे वैद्य कहते हैं। भाव-भौतिक ऐश्वर्य का अधिपति संसार में इन्द्र नाम से और आत्म ऐश्वर्य का अधिकारी लोकोत्तर जगत में इन्द्र कहलाता है । इस तरह के सम्पूर्ण व्यवहार का कारण निक्षेप पद्धति है । प्रमाण, नय व निक्षेप में अन्तर : पदार्थ के सम्यग् ज्ञान को प्रमाण और ज्ञाता के अभिप्राय विशेष को नय कहते हैं । प्रमाण के द्वारा सम्पूर्ण वस्तु जानी जाती है और नय वस्तु के एक देश को जानता है। किन्तु इन दोनों द्वारा निर्णीत, ज्ञात पदार्थ निक्षेप का विषय है। निक्षेप नामादिक के द्वारा वस्तु के भेद करने का उपाय है। प्रमाण, नय और निक्षेप में विषय-वियीभाव और वाच्य-वाचक सम्बन्ध है। यानी प्रमाण, नय विषयी हैं और निक्षेप उनका विषयवाच्य है । प्रमाण व नयों के द्वारा पदार्थों में नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव रूप से जो एक प्रकार का आरोप किया जाता है, वह निक्षेप हैं । शब्द और अर्थ में जो वाच्य-वाचकता का सम्बन्ध है, उसमें पदार्थ को स्थापित करने की क्रिया का नाम निक्षेप है कि अमुक शब्द के द्वारा यही पदार्थ वाच्य है, ग्रहण करने योग्य है आदि की वृत्ति निक्षेप द्वारा ही होती है। प्रमाण, नय ज्ञानात्मक हैं और निक्षेप ज्ञ यात्मक । प्रमाण, नय के द्वारा जो जाना जाता है, उस पदार्थ के अस्तित्व की अभिव्यक्ति निक्षेप द्वारा होती है कि नामादि प्रकारों में से वह किसी-न-किसी रूप में अवश्य है। निक्षेप का फल : ___ अप्रस्तुत अर्थ को दूर कर प्रस्तुत अर्थ को प्रकट करना, उसका बोध कराना निक्षेप का फल होता है। इसीलिए अनुयोगद्वार की टीका में कहा गया है-निक्षेप पूर्वक अर्थ का निरूपण करने से उसमें स्पष्टता आती है, अत: अर्थ की स्पष्टता उसका प्रकट फल है। अप्रस्तुत का निराकरण करके प्रस्तुत का बोध कराने से संशय आदि दोषों का निराकरण और तत्त्वार्थ का अवधारण होता है-यथार्थ निश्चय होता है।" उपाध्याय श्रीयशोविजयजी ने निक्षेप के आशय को स्पष्ट करते हुए कहा है कि शब्द की अप्रतिपत्यादिव्यवच्छेदक अर्थ रचना को निक्षेप कहते हैं। यानी निक्षेप का फल अप्रतिपत्तिसंशय, विपर्यय, अनध्यवसाय, अज्ञान आदि का व्यवच्छेद-निराकरण होता है। दूसरे शब्दों में कहें कि निक्षेप का आश्रय लेने से संशय का नाश, अज्ञान का क्षय होता है और विपर्यय अनध्यवसाय तो रहता ही नहीं है। प्रमाण के द्वारा सम्पूर्ण वस्तु और नय के द्वारा वस्तु-अंश जाना जाता है, तत्त्वार्थ का निश्चय होता है, लेकिन निक्षेप की आवश्यकता इसलिये है कि वह शब्द के नियत अर्थ को समझने-समझाने की एक पद्धति है । शब्द का उच्चारण होने पर उसके अप्रकृत (अनभिप्रेत, अनिच्छित, आवांच्छनीय) अर्थ के निराकरण और प्रकृत अर्थ के निरूपण में निक्षेप की उपयोगिता है। प्रमाण और नय के द्वारा यदि अप्रकृत अर्थ को जान भी लिया जाये तो भी वह व्यवहार में उपयोगी नहीं हो सकता है । क्योंकि मुख्य अर्थ और गौण अर्थ का विभाग होने पर भी व्यवहार की सिद्धि होती है । और मुख्य तथा गौण का भेद समझना नाम आदि निक्षेपों के बिना सम्भव नहीं है। इसलिये निक्षेप के बिना तत्वार्थ का ज्ञान नहीं हो सकता । १२ भट्ट अकलंक ने निक्षेप विधि की उपयोगिता और उसके फल के बारे में विचार करते हुए 'सिद्धि विनिश्चय' अन्थ में स्पष्ट कहा है-"किसी धर्मी में नय के द्वारा जाने हुए धर्मों की योजना करने को निक्षेप कहते हैं।" निक्षेप के अनन्त भेद हैं, क्योंकि पदार्थ अनन्त धर्मात्मक है, किन्तु संक्षेप में कहा जाये तो उसके चार भेद हैं । अप्रस्तुत का निराकरण करके प्रस्तुत का निरूपण करना उसका उद्देश्य है । द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक नय के द्वारा जीव-अजीव आदि तत्त्वों को जानने का कारण निक्षेप है । निक्षेप के द्वारा सिर्फ तत्त्वार्थ का ज्ञान ही नहीं होता, अपितु संशय-विपर्यय आदि भी नष्ट हो जाते हैं । निक्षेपों को तत्त्वार्थ के ज्ञान का हेतु इसलिए कहा जाता है कि वह शब्दों में, यथाशक्ति उनके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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