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________________ चतुर्थ खण्ड : जनदर्शन-चिन्तन के विविध आयाम २५७ अशक्य, अनभिप्रेत और सिद्ध को साध्याभास प्रतिपादित किया है-(साध्यं शक्यमभिप्रेत प्रसिद्धं ततोऽपरम् । साध्याभासं विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः ।) अकिञ्चितकर हेत्वाभास हेत्वाभासों के विवेचन-सन्दर्भ में सिद्धसेन ने कणाद और न्यायप्रवेशकार की तरह तीन हेत्वाभासों का कथन किया है, अक्षपाद की भांति उन्होंने पाँच हेत्वाभास स्वीकार नहीं किये। प्रश्न हो सकता है कि जैन तार्किक हेतु का एक (अविनाभाव-अन्यथानुपपन्नत्व) रूप मानते हैं, अतः उसके अभाव में उनका हेत्वाभास एक ही होना चाहिए । वैशेषिक, बौद्ध और सांख्य हेतु को त्रिरूप तथा नैयायिक पंचरूप स्वीकार करते हैं, अतः उनके अभाव में उनके अनुसार तीन और पांच हेत्वाभास तो युक्त हैं । पर सिद्धसेन का हेत्वाभास-त्रैविध्य प्रतिपादन कैसे युक्तियुक्त है ? इसका समाधान सिद्धसेन स्वयं करते हुए कहते हैं कि चूंकि अन्यथानुपपन्नत्व का अभाव तीन तरह से होता है- कहीं उसकी प्रतीति न होने, कहीं उसमें सन्देह होने और कहीं उसका विपर्यास होने से प्रतीति न होने पर असिद्ध, सन्देह होने पर अनैकान्तिक और विपर्यास होने पर विरुद्ध ये तीन हेत्वाभास होते हैं। अकलंक कहते हैं कि यथार्थ में हेत्वाभास एक ही है और वह है अकिंचित्कर, जो अन्यथानुपपन्नत्व के अभाव में होता है । वास्तव में अनुमान का उत्थापक अविनाभावी हेतु ही है, अतः अविनाभाव (अन्यथानुपपन्नत्व) के अभाव में हेत्वाभास की सृष्टि होती है। यतः हेतु एक अन्यथानुपपन्नरूप ही है अतः उसके अभाव में मूलतः एक ही हेत्वाभास मान्य है और वह है अन्यथाउपपन्नत्व अर्थात् अकिंचित्कर । असिद्धादि उसी का विस्तार है। इस प्रकार अकलंक के द्वारा 'अकिंचित्कर' नाम के नये हेत्वाभास की परिकल्पना उनकी अन्यतम उपलब्धि है। बालप्रयोगाभास माणिक्यनन्दि ने आभासों का विचार करते हुए अनुमानाभास सन्दर्भ में एक 'बालप्रयोगाभास' नाम के नये अनुमानाभास की चर्चा प्रस्तुत की है। इस प्रयोगाभास का तात्पर्य यह है कि जिस मन्दप्रज्ञ को समझाने के लिए तीन अवयवों की आवश्यकता है उसके लिए दो ही अवयवों का प्रयोग करना, जिसे चार की आवश्यकता है उसे तीन और जिसे पाँच की जरूरत है उसे चार का ही प्रयोग करना अथवा विपरीत क्रम से अवयवों का कथन करना बालप्रयोगाभास है और इस तरह वे चार (द्वि-अवयव प्रयोगाभास, त्रि-अवयव प्रयोगाभास, चतुरवयवप्रयोगाभास और विपरीतावयवप्रयोगाभास), सम्भव हैं । माणिक्यनन्दि से पूर्व इनका कथन दृष्टिगोचर नहीं होता । अतः इनके पुरस्कर्ता माणिक्यनन्दि प्रतीत होते हैं। अनुमान मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों रूप हैं जैन वाङ्मय में अनुमान को अभिनिबोधमतिज्ञान और श्रुत दोनों निरूपित किया है । तत्त्वार्थसूत्रकार ने उसे अभिनिबोध कहा है जो मतिज्ञान के पर्यायों में पठित है । षट्खण्डागमकार भूतबलि-पुष्पदन्त ने उसे 'हेतुवाद' नाम से व्यवहृत किया है और श्रुत के पर्यायनामों में गिनाया है । यद्यपि इन दोनों कथनों में कुछ विरोध-सा प्रतीत होगा । पर विद्यानन्द ने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि तत्त्वार्थसूत्रकार ने स्वार्थानुमान को अभिनिबोध कहा है, जो वचनात्मक नहीं है और षट्खण्डागमकार तथा उनके व्याख्याकार वीरसेन ने परार्थानुमान को श्रुतरूप प्रतिपादित किया है, जो वचनात्मक होता है। विद्यानन्द का यह समन्वयात्मक सूक्ष्म चिन्तन जैन तर्कशास्त्र में एक नया विचार है जो विशेष उल्लेख्य है । इस उपलब्धि का सम्बन्ध विशेषतया जैन ज्ञानमीमांसा के साथ है। इस तरह जैन चिन्तकों की अनुमान विषय में अनेक उपलब्धियाँ हैं । उनका अनुमान-सम्बन्धी चिन्तन भारतीय तर्कशास्त्र के लिए कई नये तत्त्व प्रदान करता है। सन्दर्भ एवं सन्दर्भ स्थल १ बृहदारण्य० २।४।५ २ श्रोतव्यो श्रुतिवाक्योभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभिः । मत्वा च सततं ध्येय एते दर्शनहेतवः ।। ३ पूर्वी और पश्चिमी दर्शन, पृ० ७१। ४ जैन तर्कशास्त्र में अनुमान-विचार, पृ० २५६, वीर सेवामन्दिर ट्रस्ट, वाराणसी १६६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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