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________________ चतुर्थ खण्ड : जैनदर्शन-चिन्तन के विविध आयाम २५५ . 0 - -- जैन तार्किक अकलंकदेव ने जो अनुमान का स्वरूप प्रस्तुत किया है वह उक्त न्यूनताओं से मुक्त है । उनका लक्षण है लिङ्गात्साध्याविनाभावाभिनिबोधेकलक्षणात् । लिङ्गिधीरनुमानं तत्फलं हानादिबुद्धयः ।। इसमें अनुमान के साक्षात्कारण-लिङ्गज्ञान का भी प्रतिपादन है और उसका स्वरूप भी 'लिङ्गिधीः' शब्द के द्वारा निर्दिष्ट है। अकलंक ने स्वरूप-निर्देश में केवल 'धीः' या 'प्रतिपत्ति' नहीं कहा, किन्तु 'लिङ्गिधीः' कहा है, जिसका अर्थ है साध्य का ज्ञान, और साध्य का ज्ञान होना ही अनुमान है । न्यायप्रवेशकार शंकरस्वामी ने साध्य का स्थानापन्न 'अर्थ' का अवश्य निर्देश किया है। पर उन्होंने कारण का निर्देश अपूर्ण किया है, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। अकलंक के इस लक्षण की एक विशेषता और भी है । वह यह कि उन्होंने 'तत्फलं हानादिबुद्धयः' शब्दों द्वारा अनुमान का फल भी निर्दिष्ट किया है । सम्भवतः इन्हीं सब बातों से उत्तरवर्ती सभी जैन ताकिकों ने अकलंकदेव की इस प्रतिष्ठित और पूर्ण अनुमान परिभाषा को ही अपनाया। इस अनुमान लक्षण से स्पष्ट है कि वही साधन अथवा लिङ्ग-लिङ्गि (साध्य-अनुमेय) का गमक हो सकता है जिसके अविनाभाव का निश्चय है । यदि उसमें अविनाभाव का निश्चय नहीं है तो वह साधन नहीं है, भले ही उसमें तीन या पाँच रूप विद्यमान हों। जैसे 'वच लोहलेख्य है, क्योंकि पार्थिव है, काष्ठ की तरह' इत्यादि हेतु तीन रूपों और पांच रूपों से सम्पन्न होने पर भी अविनाभाव के अभाव से सद्ध तु नहीं हैं, अपितु हेत्वाभास हैं और इसी से वे अपने साध्यों के अनुमापक नहीं माने जाते। इसी प्रकार 'एक मुहूर्त बाद शकट का उदय होगा, क्योंकि कृत्तिका का उदय हो रहा है,' 'समुद्र में वृद्धि होनी चाहिए अथवा कुमुदों का विकास होना चाहिए, क्योंकि चन्द्र का उदय है' आदि हेतुओं में पक्ष-धर्मत्व न होने से न त्रिरूपता है और न पंचरूपता । फिर भी अविनाभाव के होने से कृत्तिका का उदय शकटोदय का और चन्द्र का उदय समुद्रवृद्धि एवं कुमुद विकास का गमक है। हेतु का एकलक्षण (अन्यथानुपपन्नत्व) स्वरूप हेतु के स्वरूप का प्रतिपादन अक्षपाद से आरम्भ होता है, ऐसा अनुसन्धान से प्रतीत होता है । उनका वह लक्षण साधर्म्य और वैधर्म्य दोनों दृष्टान्तों पर आधारित है। अतएव नैयायिक चिन्तकों ने उसे द्विलक्षण, त्रिलक्षण, चतुर्लक्षण और पंचलक्षण प्रतिपादित किया तथा उसकी व्याख्याएं की हैं । वैशेषिक, बौद्ध, सांख्य आदि विचारकों ने उसे मात्र त्रिलक्षण बतलाया है। कुछ ताकिकों ने षड्लक्षण और सप्तलक्षण भी उसे कहा है, जैसा कि हमने अन्यत्र विचार किया है। पर जैन लेखकों ने अविनाभाव को ही हेतु का प्रधान और एकलक्षण स्वीकार किया है, तथा रूप्य, पाँचरूप्य आदि को अव्याप्त और अतिव्याप्त बतलाया है, जैसा कि ऊपर अनुमान के स्वरूप में प्रदर्शित उदाहरणों से स्पष्ट है । इस अविनाभाव को ही अन्यथानुपपन्नत्व अथवा अन्यथानुपपत्ति या अन्तर्व्याप्ति कहा है । स्मरण रहे कि यह अविनाभाव या अन्यथानुपपन्नत्व जैन लेखकों की ही उपलब्धि है जिसके उद्भावक आचार्य समन्तभद्र हैं, यह हमने विस्तार के साथ अन्यत्र विवेचन किया है। अनुमान का अङ्ग : एकमात्र व्याप्ति ___ न्याय, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक और बौद्ध सभी ने पक्षधर्मता और व्याप्ति को अनुमान का अंग माना है। परन्तु जन ताकिकों ने केवल व्याप्ति को उसका अंग बतलाया है । उनका मत है कि अनुमान में पक्षधर्मता अनावश्यक है । 'उपरि वृष्टिरभूत् अधोपूरान्यथानुपपत्तेः' आदि अनुमानों में हेतु पक्षधर्म नहीं है, फिर भी व्याप्ति के बल से वह वह गमक है । “स श्यामस्तत्पुत्रत्वावितरतत्पुत्रवत्" इत्यादि असद् अनुमानों में हेतु पक्षधर्म हैं किन्तु अविनाभाव न होने से वे अनुमापक नहीं हैं । अतः जैन चिन्तक अनुमान का अङ्ग एकमात्र व्याप्ति (अविनाभाव) को ही स्वीकार करते हैं, पक्षधर्मता को नहीं। पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर हेतुओं की परिकल्पना अकलंकदेव ने कुछ ऐसे हेतुओं की परिकल्पना की है जो उनसे पूर्व नहीं माने गये थे। उनमें मुख्यतया पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर ये तीन हेतु हैं। इन्हें किसी अन्य तार्किक ने स्वीकार किया हो, यह ज्ञात नहीं। किन्तु अकलंक ने इनकी आवश्यकता एवं अतिरिक्तता का स्पष्ट निर्देश करते हुए स्वरूप प्रतिपादन किया है । अतः यह उनकी देन कही जा सकती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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