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________________ २४८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ समकालीन जैन नैयायिकों पर पड़ रहा है। अत: इस ग्रन्थ की भयंकर कमियों को दिखाना जैन न्याय के पुनर्वीक्षण की भूमिका तैयार करना है। विद्याभूषणजी ने हिन्दू, जैन, बौद्ध तर्कशास्त्रों का इतिहास लिखा है। उनकी मान्यता है कि जैन तर्कशास्त्र तथा बौद्ध तर्कशास्त्र मध्ययुगीन भारतीय तर्कशास्त्र हैं और गौतमीय न्याय परम्परा प्राचीन भारतीय तर्कशास्त्र है तथा गंगेश न्याय परम्परा आधुनिक भारतीय तर्कशास्त्र है । वे कहते हैं-"प्राचीन तर्कशास्त्र प्रमाण, प्रमेय आदि १६ पदार्थों का विवेचन करता है।......"और मध्ययुगीन तर्कशास्त्र केवल एक पदार्थ अर्थात् प्रमाण का विवेचन करता है।"२ फिर आधुनिक तर्कशास्त्र का आरम्भ उन्होंने गंगेश लिखित "तत्त्व-चिन्तामणि" से माना है और उसे तर्कशास्त्र का युग कहा है जबकि प्राचीन काल को न्यायशास्त्र का युग और मध्ययुगीन काल को प्रमाणशास्त्र का युग कहा है। आधुनिक तर्कशास्त्र में भी प्रमाण का ही विवेचन किया गया है। परन्तु मध्ययुगीन प्रमाणशास्त्र से यह इस बात में भिन्न है कि इसमें शुद्ध परिभाषा पर बहुत अधिक बल है और इस कारण प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द-इन चारों प्रमाणों और उनके अंगों के विवेचन में अनेक तार्किक मतों की अवतारणा हुई है। वास्तव में विद्याभूषण का कार्य न्यायशास्त्र के क्षेत्र में एक युग-प्रवर्तक का कार्य रहा है। उन्होंने सर्वप्रथम प्राचीन हिन्दू, जैन, बौद्ध तथा नवीन हिन्दू तर्कशास्त्रों को एकत्र किया और एक ऐतिहासिक तथा विकासात्मक दृष्टिकोण की भूमिका तैयार की। किन्तु उनका कार्य न्यायशास्त्र की एक वैसे ही डाइरेक्टरी बनाने तक सीमित रह गया जैसे दूरभाषण विभाग द्वारा टेलीफोन डाइरेक्टरी बनायी जाती है। उनके ग्रन्थ में उनके समय तक सम्यक् सात तर्कशास्त्रियों के नाम, देश, काल, ग्रन्थ, सिद्धान्त, जाति और धर्म का पता चल जाता है तथा इसके अतिरिक्त उसमें कुछ और नहीं है । आज के सन्दर्भ में उनका इतिहास या कहिए डाइरेक्टरी निस्सन्देह कालातीत और भ्रामक है। क्योंकि आज अनेक अन्य तत्त्वों का उद्घाटन हो गया है जो पहले अज्ञात थे । उदाहरण के लिए जैन तर्कशास्त्र के सम्बन्ध में उनके इतिहास की निम्नलिखित सूचनाएँ आज गलत सिद्ध हो रही हैं (१) वे (अभयदेवसूरि) वादमहार्णव नामक तार्किक ग्रन्थ तथा सन्मतितर्कसूत्र की टीका तत्त्वार्थबोधविधायिनी के लेखक और प्रसिद्ध तर्कशास्त्री थे। आज अभयदेवसुरि की टीका प्रकाशित है। उसके अध्ययन से पता चलता है कि वादमहार्णव वास्तव में सन्मति तर्कसूत्र की उनकी टीका तत्त्वार्थ-बोधविधायिनी का ही दूसरा नाम है। उसमें अनेक वादों का वर्णन किया गया है। इसलिए उसका नाम वादमहार्णव है । इस प्रकार वादमहार्णव और तत्त्वार्थबोधविधायनी दो ग्रन्थ नहीं हैं, किन्तु एक ही ग्रन्थ के दो नाम हैं। विद्याभूषण ने उन्हें दो ग्रन्थ समझ लिया था। (२) बौद्धवादिविजेता मल्लवादी धर्मोत्तर टिप्पणकार मल्लवादी से अभिन्न है, ऐसा मत विद्याभूषणजी ने व्यक्त किया है। किन्तु यह मत गलत है। बौद्धवादिविजेता मल्लवादी द्वादशारनयचक्र के प्रणेता हैं और उनका एक ग्रन्थ सन्मतितर्क पर भाष्य के रूप में भी था जो उपलब्ध नहीं है। किन्तु द्वादशारनयचक्र प्रकाशित है और इसके प्रणेता मल्लवादी ही जैन तर्कशास्त्र में श्रेष्ठ तार्किक के रूप में विख्यात हैं। धर्मोत्तर टिप्पण के रचयिता इन मल्लवादी से भिन्न हैं। आश्चर्य है कि विद्याभूषणजी को द्वादशारनयचक्र तथा मल्लवादी कृत सन्मतितर्कप्रकरण टीका की सूचना तक नहीं है। वास्तव में उनको सन्मतितर्कप्रकरण की भी सूचना नहीं थी और न उन्होंने इस ग्रन्थ को देखा ही था। सिद्धसेन दिवाकर का यह ग्रन्थ जैन तर्कशास्त्र का एक प्रभावक ग्रन्थ माना जाता है। इन सिद्धसेन दिवाकर तथा न्यायावतार के प्रणेता सिद्धसेन दिवाकर में अभिन्नता नहीं है। किन्तु विद्याभूषणजी ने दोनों को अभिन्न कर दिया है। (३) विद्याभूषणजी ने प्रमाणनयतत्त्वालोक और प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार को एक ही ग्रन्थ मान लिया है। परन्तु वास्तव में प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार प्रमाणनयतत्त्वालोक की टीका है। दोनों ही ग्रन्थ देवसूरि के हैं। उन्होंने अपने मूल ग्रन्थ पर स्वयं टीका लिखी है । प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार का ही दूसरा नाम स्याद्वादरत्नाकर है। ___इस प्रकार जैन तर्कविदों के नाम, ग्रन्थ तथा काल के बारे में विद्याभूषण के इतिहास में काफी त्रुटियाँ हैं जिनको दूर करके ही उनके ग्रन्थ से लाभ उठाया जा सकता है। परन्तु तर्कशास्त्र के इतिहास को मात्र तर्कशास्त्रियों और उनके ग्रन्थों की नामावली नहीं होना चाहिए । उसको तर्कशास्त्र के स्वरूप का उद्घाटन करना चाहिए और जिस प्रक्रिया से तर्कशास्त्र का विकास होता है उसका परिचय देना चाहिए। विद्याभूषण का ग्रन्थ इन दोनों कार्यों को पूरा नहीं करता है। जैन तर्कशास्त्र का ही उदाहरण लेकर हम जान सकते हैं कि इस ग्रन्थ से जैन तर्कशास्त्र के स्वरूप और उसके विकास का ज्ञान नहीं होता है अथवा यदि उससे कुछ ज्ञान होता है तो वह बिल्कुल भ्रामक है। Saiko0 ORARIES Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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