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________________ चतुर्थ खण्ड : जैनदर्शन-चिन्तन के विविध आयाम २३६ . सूत्रकृतांग (१, २, २, २०) में दिखाकर कहा गया है कि यह “ज्ञातृ' का अपूर्व उपदेश है (१, २, २, ३१)] दृष्टि से देखने पर दुःख जैसा मुझे अप्रिय है, सभी जीवों की अप्रिय है, हिंसा का परित्याग ही श्रेयस्कर होता है, यही नहीं किन्तु अभी जो दूसरे को दुःख दिया वैसा ही दुःख उस कर्म के कारण अपने को भी मिलेगा ऐसा समझ कर भी हिंसा का त्याग करना जरूरी है। इसका तात्पर्य यह भी हो सकता है कि जब भी जीव हिंसा का संकल्प करता है तो अन्य जीव मरे या न मरे किन्तु अपनी आत्मा तो कषाय युक्त हुई अतएव अपनी आत्मा की तो हिंसा हो ही गयी। (३) आवंती केयावंती लोयंसी समणा य महाणा य पुढो विवायं वयंति-से दिट्ठ च णे सुयं च णे मयं च णे विण्णायं च णे उड्ड अहं तिरियं दिसासु सब्बाओ सुपडिले हियं च णे सब्बे पाणा सव्वे जीवा • • • हन्तव्बा इत्थ विजाण नत्थित्थ दोसो अणायरियवयणमेयं तत्थ जे आरिया ते एवं वयासी · · · वयं पुण एवं. माइक्खमो एवं भासामो · · · सन्वे पाणा न हन्तव्वा पुवं निकायं समयं पत्त यं पत्त यं पुच्छिस्मामि, हं भो पवाइया ! किं भे सायं दुक्खं असायं? समिया पडिवण्णे यावि एवं बूया सवेसि सत्ताणं असायं अपरिनिव्वाणं महब्भयं दुक्खंति -आचारांग १३३ । सार यह है कि कुछ श्रमण-ब्राह्मण यह कहते हैं कि सब जीव की हिंसा करनी चाहिए इसमें कोई दोष नहीं किन्तु उनका यह कथन अनार्यवचन है । आर्य तो यही कहते हैं कि किसी की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए, हिंसा के समर्थकों से पूछा जाय कि क्या तुम्हें दुःख प्रिय लगता है या अप्रिय ? तो परिणाम यही निकलता है कि दुःख तो सभी के लिए महाभयरूप होता है अप्रिय होता है । अतएव हिंसा नहीं करना यही आर्य सिद्धान्त है। ___ आत्मवादी का किया हुआ जीवों का पृथ्वी, उदक, अग्नि, वनस्पति, त्रस और वायु इन छह काय में विभाजन तो है ही इस क्रम से आचारांग के प्रथम अध्ययन में इन छ: कायों की हिंसा न करने का उपदेश है । अन्य प्रकार से भी जीवों का विभाजन आचारांग में देखा जाता है। पुढवि च आउकायं च तेऊ कायं च वाळकायं च । पणगाई बीयहरियाई तसकायं च सवेसि नच्चा ।। एयाई सन्ति पडिलेहे चित्तमंताइ.....। -आचारांग ६, १, १२, १३ (गाथा) इसमें पृथ्वी आदि चार वनस्पति के तीन भेद और त्रसकाय इस प्रकार आठ प्रकार के जीव भेदों का वर्णन है । अन्यत्र त्रस के अण्डज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, समुच्छिम, उद्भिज और उपपातज ऐसे भेद निर्दिष्ट हैं। -आचारांग ४८ । इन जीवों में वनस्पतिकाय सजीव है, इसके लिए दलील दी गयी है कि--- से बेमि इमंपि जाईधम्मयं एवंपि जाई धम्मयं इमं पि बुड्डी धम्मयं एयं पि बुड्ढी धम्मयं इमंपि चित्तमंतयं एवं पि चित्तमंतयं इमंपि छिण्णं मिलाई एयंपि छिण्णं मिलाइ इमंपि आहारगं एयं पि आहारगं इमंपि अणिच्चयं एवं पि अणिच्चयं इमंपि असासयं एयंपि असासयं इमंपि चओवच इयं एयंपि चओवचइयं इमं विप्परिणामधम्मयं एयंपि विप्परिणामधम्मयं । -आचारांग ४६ जिस तरह यह (शरीर) जन्म लेता है वृद्धि को प्राप्त होत है, सचित्त है छिन्न होने पर भी रुझ जाता है, आहार की आवश्यकता वाला है अनित्य है, अशाश्वत है चयोपचय वाला है, विपरिणामधर्मी है । उसी प्रकार वनस्पति भी जन्म आदि लेती है अतएव हमारे शरीर की तरह वह भी सजीव, सचित्त है। प्रस्तुत में जीव (चेतन) अर्थ में चित्त शब्द का प्रयोग हुआ है । सूत्रकृतांग (१, १, १, २) में भी सजीव निर्जीव अर्थ में 'चित्तमन्तमचित्त' देखा जाता है। ___ अतएव जहाँ चित्त है वह सजीव होना चाहिए यह फलित होता है, चित्त का अर्थ चैतन्य अभिप्रेत है। जन्मस्मरण का संसार का जिसने निराकरण कर दिया है अतएव जो मुक्त होता है उसके विषय में कहा है सव्वे सरा नियति तक्का जत्थ न विज्जई, मइ तत्थ न गहिया ओए अप्पईठाणस्स खेयन्ने से न दीहे न हस्से व वट्टे न तसे न चउरंसे न परिमण्डले न किन्हे न नीले न लोहिए न हालिद्दे न सुक्किले न सुरभिगन्धे, न दुरभिगन्धे न तित्त न कडए न कसाए न अंविले न महुरे न कक्खड़े न मउए न गरूए न लहुए न उण्हे न निद्ध न लुक्खे न काऊ न रूहे न संगे न इत्थि न पुरिसे न अन्नहा परिन्ने सन्ने उपमा न विज्जए अरुवी सत्ता अपयस्स पयं नत्थि -आचारांग १७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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