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________________ चतुर्थ खण्ड : जैनदर्शन-चिन्तन के विविध आयाम २३७ . जैनदर्शन का आदिकाल TOPLOCKO श्री दलसुखभाई मालवणिया [निदेशक-ला० द० भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद] . जैन आगमों में सर्वाधिक प्राचीन आगम यदि कोई है तो वह आचारांग है और उसका भी प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीनतम है। विद्वानों ने उसका समय ई० पू० तीसरी-चौथी शती माना है। अतएव जैनदर्शन का प्राचीनतम रूप देखना हो तो इसका अध्ययन जरूरी है। उसमें नवतत्त्व या सात तत्त्व स्थिर नहीं हुए किन्तु उसकी भूमिका तो बन रही है ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। पञ्चास्तिकाय या षद्रव्य का सिद्धान्त तो इसमें कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता है अतः यह मानना पड़ता है कि प्रथम स्थान जैनदर्शन में नव या सात तत्त्वों की विचारणा से मिला है और उसके बाद पञ्चास्तिकाय और षद्रव्य की विचारणा हुई है। प्राचीनतम ऐसे जैनागम आचारांग में दार्शनिक भूमिका कैसी है यह देख लेना उचित इसलिए होगा कि जैन दार्शनिक चर्चा की आगमिक भूमिका जो व्यवस्थित हुई उसका प्रारूप क्या था यह जाना जा सकता है। आचारांग जैसा कि उसके नाम से ही सूचित होता है कि भिक्ष के आचार का निरूपण करने वाला ग्रन्थ है अतएव उसमें दार्शनिक चर्चा को अवकाश नहीं, फिर भी जो प्रासंगिक चर्चा है वह जैनों का दर्शन के क्षेत्र में स्थान निश्चित करने में सहायक अवश्य है। ईसा पूर्व छठी शती में अनेक वाद प्रचलित थे उनका सामान्य रूप से निर्देश पालि पिटकों में मिलता है, उन विविध वादों में से भगवान महावीर को किस वाद का समर्थक माना जाय इसका स्पष्टीकरण आचारांग के प्रारम्भिक अंश से हो जाता है। भगवान महावीर अपने की आत्मवादी, कर्मवादी, लोकवादी और क्रियावादी के पक्ष में सूचित करते हैं और उन वादों का तात्पर्य जो उन्हें अभिप्रेत है उसका भी वहीं स्पष्टीकरण है कि जो आत्मा का जन्म-जन्मान्तर मानते हैं वही आत्मवादी आदि हो सकते हैं और आत्मा के जन्म-जन्मान्तर का आधार कर्म की मान्यता है, अतएव जो आत्मवादी है वही कर्मवादी या जो कर्मवादी है वही आत्मवादी है ऐसा समीकरण आचारांग के प्रारम्भिक अंश से फलित होता है। भगवान महावीर आत्मवादी और कर्मवादी थे तो आचारांग में उन्होंने जो आचार का उपदेश दिया उसके साथ उस आत्मवाद और कर्मवाद का क्या सम्बन्ध है ? यह सर्वप्रथम देखना आवश्यक है। आत्मा अपने विद्यमान जन्म के पूर्व और पश्चात् जन्म का अस्तित्व और अवस्था जाने और माने तब ही वह आयावाई-आत्मवादी, लोयावाई-लोकवादी, कम्मावाई-कर्मवादी (और प्राचीन परिभाषा में 'किरिया' शब्द का प्रयोग ‘कम्म' के अर्थ में होता था, देखो-प्रज्ञापना की प्रस्तावना पद २२ की विवेचना) किरियावाई-क्रियावादी हो सकता है । इस बात को आचारांग के प्रथम वाक्य में ही इस प्रकार कहा गया है तेणं भगवया एवमक्खायं इह मेगेसि णो सण्णा भवई तं जहा-पुरात्थिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि दाहिणाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि · · · · · अणुदिसाओ वा आगओ अहमंसि एवमेगेसिं णो णायं भवई अत्थि मे आया उववाइए नत्थि मे आया उववाइये के अहं आसी के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि ? से जं पुण जाणेज्जा सहसंमइयाए परवागरणेणं अण्णेसि अंतिए वा सोच्चा तं जहा-पुरथिमाओ वा दिसाओ आगओ अहमंसि जाव अण्णयरीओ दिसाओ अणुदिसाओ वा आगओ अहमसि । एवमेगेसि जं णायं भवति अत्थि मे आया उववाइए जो इमाओ दिसाओ अणुदिसाओ वा अणुसंचरइ सव्वाओ दिसाओ अणुदिसाओ सोऽहं से आयावाई लोयावाई कम्मावाई किरियावाई। -आचारांग-१-५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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