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________________ . २२० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ और इसका क्रोध विनाश का कारण बन जाता है । कभी-कभी यक्ष की पूजा से आई हुई विपत्ति नष्ट हो जाती है और आने वाला संकट उसी प्रकार दूर हो जाता है, जिस प्रकार सूर्य की किरणों से मेघ छिन्न-भिन्न हो जाते हैं । अनेक कथाएँ ऐसी प्राप्त हैं जिनमें यक्षों के द्वारा किये गये उत्पात्तों की चर्चा भी है। 'प्रतिज्ञा' नामक कथा में बताया गया है कि यक्ष के मन्दिर में सैकड़ों लोग बैठे हुए थे । वे यक्ष को प्रसन्न करने के लिए हवन, पूजा, अर्चना कर रहे थे। कुछ समय के पश्चात् मूर्ति फटी और यक्ष प्रकट हुआ। यक्ष ने अपने विकराल रूप से केशव को डराते हुए कहाकेशव ! मेरे सभी भक्त भूखे हैं । उठ जल्दी से भोजन करले । यदि भोजन के लिए किञ्चित् भी आनाकानी की तो मैं मुद्गर के एक प्रहार में ही तुझे परलोक पहुँचा दूंगा । आदि । (जैन कथाएँ भाग १२, पृष्ठ १२) यक्षों के सम्बन्ध में रूप-परिवर्तन की शक्ति मानी गई है । 'दया धर्म का मूल है'- शीर्षक कथा में कहा गया है कि मुनि श्री देवचन्द्र की धर्म-सभा में चिंघाड़ता हुआ एक हाथी सबके देखते-देखते यक्ष के रूप में परिवर्तित हो गया और मुनि को वंदना कर एक ओर बैठ गया । (दृष्टव्य जैन कथाएँ भाग १२, पृष्ठ ११२) "आग और पानी" शीर्षक कथा में वीरान जंगल में बने हुए एक यक्ष-मन्दिर को पथिकों को रात्रि व्यतीत करने का शरण स्थल बताया गया है। -(दृष्टव्य जैन कथाएँ भाग ६, पृष्ठ १०४) सम्पत्ति आदि देने के साथ-साथ कभी-कभी यक्ष आकाशगामिनी विद्या आदि को भी दे दिया करते थे। ऐसी मान्यता है । रूपादि परिवर्तन की तो यक्षों में सामर्थ्य मानी ही गई है । किन्तु यह भी निरूपित किया गया है कि समयसमय पर संसारी जीवों में अनुरक्त ये यक्ष लोक-देवता के रूप में प्रणम्य रहे हैं। व्यंतरजाति के होने से यक्षों में इस प्रकार की अलौकिक शक्तियां स्वयं संभाव्य हैं-पूर्वभवों की स्मृतियां भी यदा-कदा इनमें जीवित हो उठती थीं। साँझ-सबेरे' नामक कथा में कहा गया है कि उसी समय एक यक्ष आया और उसने कहा-राजन् ! यह (कनकमाला) मेरी पुत्री है, इससे मुझे बड़ा मोह है। इसे यहीं रहने दीजिये। मैं आपको आकाशगामिनी विद्या देता है । इसके बल से आप जब भी चाहें क्षण मात्र में यहाँ आ सकेंगे।" -(जैन कथाएँ भाग ८, पृष्ठ १२२) कहीं-कहीं पर यक्ष को व्यंतर देवों का नायक भी बताया गया है। इस रूप में वह विपत्तियों में फंसे हुए अपने भक्तों की सहायता करता है और पशु-बलि भी स्वीकार करता है। देखिए "बात में बात, कहानी में कहानी (-जैन कथाएं भाग ४, पृष्ठ ५५) व्यन्तर देवी की भाँति यक्षिणी भी जैन कथाओं में वर्णित हैं। नवकार मंत्र की जाप से व्यथित सुर-सुन्दरी की एक यक्ष ने दयार्द्र होकर रक्षा की थी। और उसे अपने संरक्षण में रखा था। (देखिए 'नारी नर से आगे, शीर्षक कथा जैन कथाएँ भाग २, पृष्ठ १४-१५) यक्ष मन्दिरों के साथ यक्ष द्वीप का भी उल्लेख जैन कथाओं में उपलब्ध है। (–दृष्टव्य जैन कथाएँ भाग २, पृष्ठ १५) यक्षों की इस संक्षिप्त चर्चा के उपरान्त यह लिखना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि इनके (यक्षों के) सम्बन्ध में विद्वानों की विभिन्न धारणाएँ विद्यमान हैं जिनकी चर्चा डॉ० कर्ण राजशेषगिरि राव ने अपने निबन्ध "यक्षः एक विवेचन' में की है 'यक्ष शब्द ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद ब्राह्मणों तथा उपनिषदों में आया है। यक्ष का अर्थ है कुछ भयानक या अद्भुत या जादूगर या अदृश्य दैविक बर्बर शत्रु ।" इसकी पूजा का प्रचलन 'बरम' तथा 'बरमदेव' नाम से आज तक प्रचलित है। प्राचीन साहित्य में यक्षों के सम्बन्ध में प्रचुर उल्लेख मिलते हैं । रामायण और महाभारत से स्पष्ट होता है यक्ष देवों से नीचे और भूतों से ऊंचे हैं। इससे स्पष्ट है कि यक्ष और राक्षस एक ही स्रोत से निकले थे। महाभारत के अनुशीलन से स्पष्ट होता है भीष्मपर्व के अन्तर्गत कहा गया है कि नील के दक्षिण और निषध के उत्तर में हिरण्यमंथ खंड है । वहाँ हिरण्वती नदी है । वहाँ गरुड़ रहते हैं । वहाँ यक्षों की उपासना होती है ।"उत्तर भारत में यक्ष पूजा का कितना अधिक प्रचार हो गया था, इसका विशेष पता हमें बौद्ध और जैन साहित्य में मिलता है । इस साहित्य में उंबरदत्त, सुरंबर, मणिभद्र, भंडीर, शूलपाणि, सुरप्रिय, नटी, भट्टी, रेवती, तमसुरी, लोका, मेखला, आलिका, बेंदा, मघा, तिमिसिका आदि अनेक यक्षों तथा यक्षिणियों के नाम भी प्राप्त होते हैं, जिनसे लोग बहुत भय खाते थे । अन्तिम चारों यक्षिणियाँ मथुरा की थीं। वीर, जखैया आदि की पूजा भी प्राचीन यक्ष-पूजा के आधुनिक रूप हैं । साधारणतः यक्ष-पूजा वीर के नाम से होती है। ब्रजलोक वार्ता में यक्ष-पूजा आज भी जखैया के रूप में होती है । जखैये पर घंटे (शूकर के बच्चे) बलि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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