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________________ तृतीय खण्ड : गुरुदेव को साहित्य धारा २१५ . ++++++++ + ++ ++++++++++ ++ +++ + ++ ++++++++++++++++ + ++++++ + ++++ ++++ ++ ++ + ++ ++ ++ ++ ++ ++ +++++++++ ++ ++++++ ++ ++++++ ०० जैन प्राकृत-अपभ्रश साहित्य में हम पहिली बार देखते हैं कि काव्य का नायक साधारण श्रेणी का व्यक्ति भी हो सकता है। कोई भी धन-सम्पन्न श्रेष्ठि (वैश्य) काव्य का नायक हो सकता है। इन लेखकों ने अपनी सुविधाओं के अनुकूल इन नायकों के चरित्रों में परिवर्तन अवश्य किये हैं। किसी न किसी प्रकार उनको धार्मिक घेरे में बन्द करने का प्रयत्न तो किया ही है किन्तु इसके अतिरिक्त अन्य परिस्थितियों का वर्णन अत्यन्त स्वाभाविक ढंग पर किया है। जिस समाज से इन कथानायकों का सम्बन्ध है, वह सबके अनुभव करने योग्य साधारण है। इसके साथ इन कवियों ने घरेलू जीवन से चुनकर प्रचलित और चिर-परिचित सुभाषितों, सरल ध्वन्यात्मक देशी शब्दों, घरेलू वर्णनों एवं इसी बीच से उपमानों का प्रयोग करके काव्य को बहुत सामान्य रूप प्रदान किया है। ......"इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जैन साहित्य से इस प्रकार अनेक काव्यमय आख्यायिकाओं के रूप हमारे प्रारम्भिक हिन्दी कवियों को मिले और प्रेम-मार्गी कवियों ने उन पर काव्य लिखकर अच्छा मार्ग प्रस्तुत किया । दूसरी प्रधान धारा जन साहित्य में उपदेश की है। यह अधिक प्राचीन है । यह उपदेशात्मकता हमें भारतीय साहित्य में सर्वत्र मिल सकती है लेकिन जैन-साहित्य की उपदेशात्मकता गृहस्थ-जीवन के अधिक निकट आ गई है । भाषा और उसकी सरलता इसके प्रधान कारण हैं। वर्तमान 'साधु वर्ग' पर जैन साधुओं और सन्यासियों का अधिक प्रभाव प्रतीत होता है। जैन कथाओं में कम सिद्धान्त : जैन-दर्शन में कर्म सिद्धान्त की बड़ी विशद व्याख्या की गई है ऐसी अन्यत्र दुर्लभ है। जैन की यह धारणा अटल है कि प्रत्येक प्राणी कर्म करने में पूर्ण स्वतन्त्र है और फल भोगने में भी वह उतना ही आजाद है। शुभाशुभ कर्म करके जीव पाप-पुण्य के घेरे में आबद्ध होता है और तदनुसार उसकी परिणति होती है। कर्मों के करने में किसी महती शक्ति की प्रेरणा जैन धर्म में किसी भी रूप में स्वीकृत नहीं है। कर्म सिद्धान्त के व्यापक अनुशीलन में विधि-विधान, भवितव्यता एवं भाग्यवाद भी सन्निहित है । जीव अपने भाग्य का विधाता स्वयं है तथा दुर्भाग्य का जनक भी वही है। "सभी प्राणी कर्मों के उत्तराधिकारी हैं । कर्म के अनुसार योनियों में जाते हैं। अपना कर्म ही बन्धु है, आश्रय है, और जीव का उच्च और नीच रूप में विभाग करता है । ......"हिन्दू जगत् के दृष्टिकोण को तुलसीदासजी ने इन शब्दों में प्रकट किया है कर्म प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करहि सो तस फल चाखा ॥ ........"जो संसारी जीव है, वह राग, द्वेष आदि भावों को उत्पन्न करता है, जिनसे कर्म आते हैं और कर्मों से मनुष्य, पशु आदि गतियों की उत्पत्ति होती है । गतियों में जाने पर शरीर की प्राप्ति होती है । शरीर से इन्द्रियाँ उत्पन्न होती हैं। इन्द्रियों द्वारा विषयों का ग्रहण होता है जिससे राग और द्वेष होते हैं। इस प्रकार का भाव संसार-चक्र में भ्रमण करते हुए जीव के सन्तति की अपेक्षा अनादि-अनन्त और पर्याय की दृष्टि से सान्त भी होता है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। ......." इस कर्म सिद्धान्त से यह बात स्पष्ट होती है कि वास्तव में इस जीव का शुभ-अशुभ कर्म के सिवाय कोई अन्य न तो हित करता है और न अहित । मिथ्यात्व कर्म के अधीन होकर धर्म मार्ग का त्याग करने वाला देवता भी मर कर एकेन्द्रिय वृक्ष होता है। धर्माचरणरहित चक्रवर्ती भी सम्पत्ति न पाकर नरक में गिरता है। इसलिए अपने उत्तरदायित्व को सोचते हुए कि इस जीवन का भाग्य स्व-उपार्जित कर्मों के अधीन है, धर्माचरण करना चाहिए।"२ अध्यात्म योगी श्री पुष्कर मुनि ने अपनी विभिन्न जैन कथाओं में इसी कर्म-सिद्धान्त की, अनेक रूपों में पात्रों तथा साधु विशेष के माध्यम से विवेचना की है। पूर्व जन्म की कहानी, मुनि की जबानी, शीर्षक कथा में केवल ज्ञानी मुनि कहते हैं-'राजन् ! हर प्राणी पूर्व कृत कर्मों का ही फल भोगता है। कर्मबंध से ही उस पर संकट आते हैं और कर्मबंध से ही वह संकटों से रक्षा पाकर दुख प्राप्त करता है।" (दृष्टव्य-जैन कथाएँ भाग ६ पृष्ठ १६०।) धर्म सभा में राजा मानमर्दन को, देशना देते हुए मुनि ने समझाया : "शुभ आत्माओ ! भाग्य को उपालम्भ देना जगल में रोने के समान है। देव संभव को असंभव और असंभव को संभव कर दिखाता है। भावी अथवा दैवी-विधान हर मनुष्य के साथ छाया की तरह लगा १ प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ पृष्ठ ४६४ एवं ४६७. २ श्रीसुमेरुचंद्र दिवाकर शास्त्री-जैन शासन पृष्ठ २१० एवं २४१ (कर्म सिद्धान्त) HEIRTERS Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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