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________________ २०६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ e सरिता को सरस धाराएँ हैं ? या सोने-चांदी, हीरे-जवाहरात की खानें हैं ? अथवा पेट्रोल या तेल के स्रोत हैं ? यह एक ज्वलन्त प्रश्न है जिसका उत्तर आपको देना है। यदि आपने इस बाह्य वैभव से ही भारतवर्ष का मूल्यांकन किया तो मुझे कहना चाहिए कि आपने भारतवर्ष की आत्मा को नहीं पहचाना, आपने केवल शरीर का या भौतिक पदार्थों का ही अवलोकन किया है, उसे ही महत्त्व दिया है।" जीवन में आचार और विचार की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए आपने अपने प्रवचन में कहा है बिजली के दो तार होते हैं, एक नेगेटिव और दूसरा पोजिटिव । जब तक ये दोनों तार पृथक्-पृथक रहते हैं तब तक आपका कमरा मधुर प्रकाश से प्रकाशित नहीं हो सकता, पंखा आपको हवा नहीं दे सकता, रेडियो पर रागरागिनो थिरक नहीं सकती, हीटर पानी गरम नहीं कर सकता; चाहे आप कितनी ही बार बटन दबाएँ किन्तु यदि ये दोनों तार मिले हुए होते हैं तो बटन दबाते ही प्रकाश हंसने लगेगा, हीटर पानी को उबाल देगा। इसी प्रकार साधकजीवन की स्थिति है । यदि उसके जीवन में विचार और आचार के दोनों तार नहीं हैं तो आध्यात्मिक प्रकाश फैल नहीं सकता, उत्क्रान्ति की हवा मिल नहीं सकती, विश्व के आध्यात्मिक संगीत की स्वर-लहरी सुनाई नहीं दे सकती, साधना की गर्मी आ नहीं सकती।" _ विनय की महत्ता बताते हुए आपने कहा “विनय वह लोह चुम्बक है जो सभी सद्गुणों को अपनी ओर आकर्षित करता है। आप जानते हैं सोना भी धातु है और लोहा भी धातु है, मगर हीरे, पन्ने, माणक-मोती को जड़ना हो तो आप सोने में ही क्यों जड़ते हैं, लोहे में क्यों नहीं? कारण स्पष्ट है कि सोने में नम्रता है, लचक है । सोने को जितना ज्यादा पीटा जाता है उतनी ही ज्यादा उसमें नम्रता आती है। नम्र और निर्मल होने पर सोना कुन्दन कहलाता है, वैसे ही नम्र और निर्मल होने पर मनुष्य पवित्र कहलाता है। सोना नम्रता के कारण जब हीरों से जड़ दिया जाता है, तब उसकी कीमत लाखों की हो जाती है। यदि सोना भी लोहे की तरह कठोर होता, वह अपने आप में हीरे को जगह नहीं देता तो उसकी कीमत लाखों की नहीं हो सकती थी। जीवन को विनम्र बनाने का अर्थ है-सोना बनाना । और जीवन सोना बन जाता है तो उसमें क्षमा, दया, सत्य, प्रेम आदि के जगमगाते हीरे जड़ जाते हैं । वह जीवन बहुमूल्य बन जाता है । और बहुमूल्य जीवन जहाँ भी जाता है, वहाँ सुख और शान्ति की बंशी बजने लगती है।" मानव और मानवता का विश्लेषण करते हुए आपश्री ने कहा मानव और मानवता में उतना ही अन्तर है जितना दूध और दूध की बोतल में। यदि आपको दूध पीना है तो किसी न किसी बोतल या पात्र में होगा तभी पी पायेंगे। दूध की खाली बोतल के रूप में मानव शरीर है, अगर मानवता रूपी दूध उसमें नहीं है, तो बेकार है। आपने एक बहुत अच्छी दूकान मौके पर किराये से ली है। उसमें अलमारियाँ, शो-केस, टेबल, कुर्सियां आदि सजा दी है, ज्वेलरी हाउस का साइनबोर्ड भी आपने लगा दिया है, परन्तु यदि उस दुकान में माल कुछ भी नहीं है, ग्राहक आता है तो खाली लौटकर जाता है तो वह दुकान एक धोखे की टट्टी है। उससे कोई लाभ नहीं है दुकानदार को, न ग्राहक को। इसी प्रकार यदि आपने मानव-शरीर पा लिया है, उसे खूब मोटा-ताजा भी बना लिया है, विविध अलंकारों से उसे विभूषित भी कर दिया है, परन्तु कोई भी मानव आपके सम्पर्क में आता है, उसे आप घृणा की दृष्टि से देखते हैं, उसका तिरस्कार करते हैं, अपनी सेठाई के अभिमान में आकर उसको दुत्कार देते हैं, पास में शक्ति होते हुए भी किसी को दुःखित, पीड़ित, और कराहते हुए देखकर भी आगे टरका जाते हैं, आपके हृदय में मानव को देखकर प्रसन्नता की लहरें नहीं उठती है, आपका हृदय मनुष्य के बाह्य जाति-पाति या सम्प्रदायों के लेबलों को देखकर वहीं ठिठक जाता है, तो कहना चाहिए कि आपके यहाँ भी "ऊँची दुकान फीका पकवान" वाली उक्ति चरितार्थ हो रही है । आप मानव तो हैं, परन्तु आप में मानवता नहीं है। मानव-शरीर-रूपी दुकान तो आपने विविध फर्नीचरों से सजा ली है, किन्तु मानवता-रूपी माल आपकी दुकान में नहीं है।" साहित्य के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए गुरुदेव ने कहा "साहित्य महापुरुषों के विचारों का अक्षय कोश है। संसार रूपी रोग को नष्ट करने के लिए अद्भुत औषध है । सत्य और सौन्दर्य से भरा हुआ मानो स्टीमर है। वह युवावस्था में मार्ग-दर्शक है और वृद्धावस्था में आनन्ददायक है । वह एक अद्भुत शिक्षक है । शिक्षक-चाबुक मारता है, वह कठोर शब्दों में फटकारता है और पैसे भी लेता है पर यह न चाबुक मारता है न कठोर शब्दों में फटकारता है और न पैसे ही लेता है। किन्तु शिक्षक की तरह उपदेश देता है । यह युवावस्था में भी वृद्ध जैसा अनुभवी बना देता है । एतदर्थ ही आस्टिन फिलिप्स ने कहा था-"कपड़े भले ही पुराने पहनो पर पुस्तकें नवीन-नवीन खरीदो।" -- --- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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