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________________ १८२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ ++ + ++ ++ ++ ++ + ++ + ++ ++ ++ ++ ++ का निर्माण किया । पर वहाँ अवकाश के क्षणों का अभाव होने से सामाचारी निर्माण का पूर्ण कार्य सम्पन्न नहीं हो सका । सोजत और भीनासर सम्मेलन में उस अपूर्ण सामाचारी तथा तत्कालीन समस्याओं पर विचारविमर्श किया गया । पर अत्यन्त परिताप की बात है कि हमारा कदम जो दिन-प्रतिदिन प्रगति के पथ पर मुस्तैद रूप से बढ़ना चाहिए था, वह रुक गया; रुका ही नहीं पर कुछ पीछे भी खिसका । जो मानस की उदार भावना संघोन्नति की ओर थी, वह अपने वैयक्तिक या साम्प्रदायिकता को पल्लवित पुष्पित करने की ओर लग गई । अधिकार-लिप्सा शैतान की आँत की भाँति बढ़ने लगी । साधारण सी समस्या को लेकर आचार्य श्री एवं उपाचार्य श्री में मतभेद हो गया और इन दोनों महापुरुषों के पारस्परिक विरुद्ध-निर्णय हमारे समक्ष आए। इधर दोनों के बीच की प्रधान-मन्त्री-पद की कड़ी की लड़ी पूर्व ही टूट चुकी थी। अतः दोनों महापुरुषों में मेल किस प्रकार बिठाया जाय यह एक महान् समस्या बन गई। दोनों महापुरुषों के विरोधी निर्णयों को पाकर सन्त-समुदाय में भी सनसनी होने लगी, जिससे अधिकारी मुनियों का अनुशासन जिस रूप में रहना चाहिए था उस रूप में न रह सका, आज स्थिति इतनी विषम बन गई है कि कहीं पर भी किसी भी प्रकार की व्यवस्था भंग हो, श्रमण या श्रमणी साधना के कठोर मार्ग से च्युत हो जाएं तो भी कौन कहे ? किसका क्या अधिकार है ? यह निर्णय करना भी विज्ञों के लिए एक महान् प्रश्न बन गया है। आज न भूतपूर्व साम्प्रदायिक व्यवस्था ही रही है और न वर्तमान अधिकारियों का योग्य अनुशासन ही। हमारी दृष्टि से यह आचार-शैथिल्य का प्रमुखतम कारण है। आचार्य और उपाचार्य श्री के चरणारविन्दों में मतभेद निवारणार्थ अनेक बार विनम्र प्रार्थनाएँ की गयीं और योजना भी प्रस्तुत की गई, पर खेद है कि उनमें से अभी तक एक भी सफल न हो सकी। और मतभेद ने इतना उग्र रूप धारण किया कि पारस्परिक सम्बन्ध-विच्छेद की स्थिति भी हमारे सामने आ गई है। हमारी यह हार्दिक भावना है कि संघ में संगठन अक्षुण्ण बना रहे । व्यक्ति अपने हित और अपमान को महत्त्व न देकर संघ के हित को और सम्मान को महत्त्व दें। संघ महान् है इस बात को समझकर संयम-शुद्धि के साथ संघ के कल्याणार्थ सर्वस्व न्योछावर करके श्रमणसंघ के अधिनायकों के एकछत्र शासन में त्यागीवर्ग संयम-साधना, तप-आराधना, और मनो-मन्थन कर ज्ञान, दर्शन, चारित्र की त्रिवेणी में अवगाहन करें, किन्तु यह तभी सम्भव है कि संघ के सर्वोच्च अधिनायक आचार्य श्री और उपाचार्य श्री में मतभेद दूर होकर समरसता-सरसता उत्पन्न हो। एतदर्थ ही विजयनगर के प्रांगण में श्रमणसंघ की स्थिति पर विचार-विनिमय करने के लिए हम तीनों सन्त एकत्रित हुए और समस्त स्थानकवासी समाज के अन्तर्मानस की भव्य भावनाओं को लक्ष्य में रखकर श्रद्धेय आचार्य श्री और उपाचार्य श्री के चरणारविन्दों में निवेदनार्थ एक प्रस्ताव भी निर्णय किया, पर ता० ३०-११-६० को उदयपुर में उपाचार्य श्री ने उपाचार्य पद का त्याग करके अपने को श्रमणसंघ से अलग घोषित किया जिसे हम संघ-हितकर नहीं मानते हैं। हमारी यह हार्दिक भावना है कि वे पुनः संघ-हित व जिन-शासनोन्नति को लक्ष्य में रखकर इस पर गम्भीरता से विचार करें और उलझी हुई समस्याओं को परस्पर विचार-विमर्श द्वारा या किसी माध्यम से हल करके संघ के श्रेय के भागी बनें। हमारा यह दृढ़ मन्तव्य है कि वर्तमान में हमारी आचार-व्यवस्था किन्हीं कारणों से शिथिल हो गई है, अत: उस पर बड़ा नियन्त्रण आवश्यक है क्योंकि आचार-निष्ठा में ही श्रमणसंघ की प्रतिष्ठा है। हम चाहते हैं कि प्रमुख मुनिवरों के परामर्श से शिथिलाचार को आमूल-चूल नष्ट करने के लिए दृढ़ कदम उठाया जाय । हम शिथिलाचार को हर प्रकार से दूर करने के लिए तैयार हैं। जब तक संघ में पारस्परिक मतभेद दूर होकर इसके लिए सुव्यवस्था न हो जाय तब तक अधिकारी मुनिवर अपने आश्रित श्रमणवर्ग की आचारशुद्धि पर पूर्ण ध्यान रखें । यदि कदाचित् किसी भी सन्त व सतीजन की मूलाचार में कोई स्खलना सुनाई दे तो तत्काल उसकी जाँचकर शुद्धि कर दी जाय । ____ अन्त में हमारी ही नहीं, अपितु संघ के सभी सदस्यों की भावना है कि श्रमण संघ अक्षुण्ण व अखण्ड बना रहे । आचार और विचार की दृष्टि से दिन-प्रतिदिन प्रगति के पथ पर दृढ़ता से बढ़ता रहे और जन-जन के हृदय से यही नारा निकले कि "अखण्ड रहे यह संघ हमारा।" । प्रस्तुत वक्तव्य से समाज में अभिनव जागृति का संचार हुआ और उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी महाराज को लगा कि मेरी अवैधानिक कार्यवाही को श्रमणसंघ के मूर्धन्य मुनिगण अनादर की दृष्टि से देख रहे हैं, अत: उन्होंने श्रमण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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