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________________ B. १७८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ संस्मरण : कुछ मीठे : कुछ कड़वे दाने-दाने पर लिख गया खाने वाले का नाम सन् १९२६ में आपका वर्षावास सादड़ी (मारवाड़) में था। उस समय आपके पूज्य गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचन्द जी महाराज और दौलतराम जी महाराज वहाँ पर थे । एक दिन भिक्षा में एक लड्डू आया । वह लड्डू कौन खाये-यह प्रश्न था। गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचन्द जी महाराज ने आपसे कहा-पुष्कर, तू सबसे छोटा है, अतः लड्डू का अधिकारी तू है । आपश्री ने गुरुदेव से निवेदन किया-गुरुदेव, आप बड़े हैं, इसलिए सरस आहार आपको लेना चाहिए । या इन वृद्ध महाराज को" अन्त में यह निर्णय हुआ कि प्रथम शेष आहार को कर लिया जाय, बाद में लड्डू का वितरण कर देंगे। यह विचार कर आहार के बीच में जो लघु पट्टा रखा हुआ था, उस पर लड्डू रख दिया। स्थानक में ही पीपल का पेड़ था। उस पर एक बन्दर छिप करके बैठा हुआ था। उसने लड्डू को देखा तो धीरे से नीचे उतरा और चट से लड्डू को लेकर चलता बना । आपश्री ने गुरुदेव को कहा-गुरुदेव, दाने-दाने पर लिख गया है खाने वाले का नाम'-इसी को कहते हैं। उत्कट सेवा भावना सन् १९३४ में आपका चातुर्मास ब्यावर था । चातुर्मास में जैन श्रमण विहार नहीं करते। वे एक स्थान पर स्थित रहते हैं, किन्तु स्थानांग सूत्र के पांचवें ठाणे में चातुर्मास में भी जैन श्रमण विहार कर सकते हैं ऐसा उल्लेख है। वे कारण हैं-ज्ञान के लिए, दर्शन के लिए, चारित्र के लिए, आचार्य और उपाध्याय की मृत्यु के अवसर पर, वर्षा क्षेत्र से बाहर रहे हुए आचार्य या उपाध्याय की वैय्यावृत्य करने के लिए । इस विधान के अनुसार आचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज की सम्प्रदाय के वयोवृद्ध प्रवर्तक श्री दयालचन्द जी महाराज जिनका वर्षावास उस समय समदड़ी में था, वे अत्यधिक अस्वस्थ हो गये । तब आपश्री वर्षावास में विहार कर ब्यावर से समदड़ी पधारे । सत्याग्रह नहीं हठाग्रह सन् १९३६ में आपका चातुर्मास नासिक था। उस समय आपश्री बम्बई होकर नासिक पधारे थे। उस समय बम्बई के सत्याग्रही मुनिश्री मिश्रीलाल जी ने आचार्य हुक्मीचन्द जी महाराज के पूज्य जवाहरलाल जी महाराज और पूज्य मुन्नालाल जी महाराज की एकता कराने हेतु सत्याग्रह कर रखा था। सत्याग्रह के साठ दिन पूरे हो चुके थे। बम्बई संघ के अत्याग्रह पर आपश्री ने उन्हें समझाने का प्रयास किया कि जैन श्रमणों को इस प्रकार फुट-पाथ पर रहकर अनशन नहीं करना चाहिए। यह सत्याग्रह नहीं हठाग्रह है इससे जिनशासन की प्रभावना के स्थान पर हीलना होती है। उन्हें गुरुदेव श्री के तर्क समझ में आ गये, किन्तु वे अपने हठ को छोड़ने के लिए प्रस्तुत नहीं थे । किन्तु अन्त में उन्हें सफलता नहीं मिली और डाक्टर के कहने पर अनशन छोड़ना पड़ा। इस समय उन्हें ध्यान आया कि आपश्री के कहने पर छोड़ देता तो अच्छा था। प्रकाण्ड पाण्डित्य सन् १९३७ में मनमाड़ चातुर्मास के पूर्व राहोरी में विदुषी महासती राजकुवर जी और जैनजगत् की उज्ज्वलतारिका उज्ज्वलकुमारी जी आपसे मिलीं। आपश्री के न्याय, दर्शन के प्रकाण्ड पाण्डित्य को देखकर अत्यधिक प्रभावित हुई। और उन्होंने आपश्री से पढ़ने की जिज्ञासा व्यक्त की। किन्तु आपश्री का वर्षावास मनमाड़ निश्चित हो चुका था, अत: महासती जी की भावना को मूर्तरूप नहीं दिया जा सका। क्योंकि महासती राजकुवर जी रुग्ण थीं और वे उन्हें उस समय पृथक् रहने की स्थिति में नहीं थी। वृद्धा का षड्यन्त्र सन् १९४० में आपका चातुर्मास खण्डप में था। उस समय एक वृद्धा ब्राह्मणी आठ-दस व्यक्तियों को लेकर उपस्थित हुई। सन्तगण स्वाध्याय-ध्यान में लीन थे। आते ही उस वृद्धा ने कहा-मेरा पुत्र यहाँ पर है। मैं उसे लेने के लिए आयी हूँ। गुरुदेव श्री ने विनोद करते हुए कहा-हम यहाँ तीन साधु हैं, उसमें जो तुम्हें पसन्द हो - उसे अपना पुत्र बना लो। वृद्धा ने तपाक से कहा-तू ही मेरा बेटा है। गुरुदेव ने मुस्कराते हुए कहा- मां! इस ०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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