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________________ द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन १५७ . ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ ++ + ++ ++ ++ ++ ++ ++ + ++++ ++++ ++ ++ ++ + ++ ++ ++ ++ ++ ० कांश भाग नष्ट हो गया था। उन्हें पुनः व्यवस्थित करने का प्रयास किया गया। उसके पश्चात् आगमों की वाचना को लेकर कोई सम्मेलन नहीं हुए। आचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज के समय पंचेवर ग्राम में एक सम्मेलन हुआ था। इस सम्मेलन का उद्देश्य श्रुत के सम्बन्ध में चिन्तन नहीं किन्तु पारस्परिक क्रियाओं को लेकर पूज्य श्री कान जी ऋषि जी महाराज के सम्प्रदाय के अनुयायी पूज्य श्री ताराचन्द जी महाराज, जोगराज जी महाराज, मीवा जी महाराज, श्री त्रिलोकचन्द जी महाराज, आर्या जी श्री राधाजी, पूज्य श्री हरिदास जी महाराज के अनुयायी, मलुकचन्द जी महाराज, आर्या फूला जी महाराज तथा पूज्य श्री परशुराम जी महाराज के अनुयायी, श्री खेतसी व खीवसी जी महाराज और आर्या श्री केशर जी महाराज आदि सभी सन्त सतीगण गंभीर विचार-चर्चा के पश्चात् आचार्य श्री अमरसिंह जी महाराज के साथ एक सूत्र में बंध गये। उसके पश्चात् राजस्थान प्रान्तीय मुनियों का सम्मेलन पाली में सन् १९३२ में हुआ । संगठन की एक लहर पैदा हुई। और सन् १९३३ में अजरामपुरी अजमेर में एक विराट सन्त-सम्मेलन का आयोजन हुआ। उस सम्मेलन में स्थानकवासी समाज के मूर्धन्य सन्त गण पधारे । उस सम्मेलन में पूज्य गुरुदेव श्री नींव की ईंट के रूप में रहकर कार्य करते रहे। समाज के बिखरे हुए तारों को मिलाने में आप श्री ने अपनी शक्ति का उपयोग किया। यह सम्मेलन यद्यपि पूर्ण सफल न हो सका, तथापि संगठन का एक सुन्दर वातावरण का निर्माण हुआ। और ऐसे अनेक प्रस्ताव पारित हुए जिससे स्थानकवासी समाज का भविष्य अत्युज्ज्वल दिखायी देने लगा। आपश्री का सदा चिन्तन चलता रहा कि ऐसा प्रयास किया जाय जिससे श्रमणों का एक संगठन बन जाय । क्योंकि संगठन ही जीवन है और विघटन ही मृत्यु है। बिना संगठन के समाज सही प्रगति नहीं कर सकता। आपश्री के प्रबल पुरुषार्थ से ही सन् १९५२ में सादड़ी सन्त सम्मेलन हुआ । क्योंकि सम्मेलन के पूर्व आपश्री का सादड़ी में वर्षावास था । स्थानकवासी जैन कान्फ्रेंस के अधिकृत अधिकारीगण हताश व निराश हो चुके थे। क्योंकि जितने भी अन्य स्थानों से सम्मेलन के लिए प्रार्थनाएं आयी थीं। वे सभी प्रार्थनाएँ स-शर्त थीं। अत: विचारकों के सामने प्रश्न था कि सम्मेलन कहाँ कराया जाय यदि उनकी शर्ते पूरी न हो तो सम्मेलन होना संभव नहीं दीखता। किन्तु आपश्री ने कहा-सादड़ी सम्मेलन के लिए उपयुक्त स्थल हैं । यह पावन भूमि है । यहाँ पर आप सम्मेलन करें। आपने अपने ओजस्वी और तेजस्वी प्रवचनों से स्थानीय संघ में सम्मेलन की भव्य भूमिका तैयार की और इतना शानदार सम्मेलन हुआ कि सभी देखकर विस्मित हो गये। और उस सम्मेलन में आपने अत्यधिक पुरुषार्थ किया जिसके फलस्वरूप श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ का निर्माण हुआ । इस सम्मेलन में लगभग पचास हजार नर-नारी बाहर से उपस्थित हुए थे । आपश्री के सद्गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचंद जी महाराज सभी सन्तों में उस समय सबसे बड़े थे । विभिन्न सम्प्रदायों की सरिताएं श्रमणसंघ के महासागर में विलीन हो गयीं। संगठन के लिए सभी पदवीधारी मुनिराजों ने अपनी पदवियों का परित्याग किया। और सर्वानुमति से परम श्रद्धय जैनागम वारिधि श्री १००८ आत्माराम जी महाराज को आचार्य पद प्रदान किया गया । और आगम मर्मज्ञ श्री गणेशीलाल जी महाराज को उपाचार्य पद दिया गया। और पंडित प्रवर आनन्द ऋषि जी महाराज को प्रधानमंत्री पद प्रदान किया गया । और सोलह विद्वान मुनिराजों का एक मंत्रि-मंडल बनाया गया जिसमें श्रद्धय गुरुदेव को साहित्य शिक्षणमंत्री पद दिया गया । आपश्री ने विलक्षण प्रतिभा, सूझबूझ, संगठन-शक्ति, और विचार गांभीर्य से सम्मेलन की सफलता हेतु अथक परिश्रम किया, जिसका ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। उसके पश्चात् सोजत मंत्री-मंडल की बैठक भीनासर सम्मेलन (१९५५), अजमेर शिखर सम्मेलन (१९६४) और सांडेराव राजस्थान प्रान्तीय सम्मेलन (१९७१) में आपश्री ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की । श्रमण संघ अखण्ड बना रहे इस हेतु आपका अथक प्रयास रहा । और उसके लिए आपश्री ने लंबे-लंबे विहार भी किये और जी-जान से प्रयास भी किये । आपश्री चाहते हैं कि श्रमणसंघ आचार-विचार दोनों ही दृष्टियों से उत्कृष्ट हो, श्रमणों की शोभा शास्त्रीय मर्यादाओं का पालन करने में है। मर्यादाओं का अतिक्रमण उचित नहीं है। स्थानकवासी समाज में ही नहीं, किन्तु सम्पूर्ण जैन समाज में आपश्री एकता देखना चाहते हैं । बेंगलोर के सन् १९७७ भारत जैन महामंडल के लघु अधिवेशन में प्रवचन करते हुए आपने कहा कि, फूट ने हमारा कितना पतन किया है। सम्प्रदाय रहे किन्तु सम्प्रदायवाद न रहे। एक परिवार के रहने के लिए मकान में पृथक्-पृथक् कमरे होते हैं जहाँ वह स्वतन्त्र रूप से रह सकता है। किन्तु मकान में ऐसा एक हॉल होता है जहाँ सभी घर के सदस्य बैठकर वार्तालाप व चिन्तन कर सकते हैं । स्थानकवासी, मंदिरमार्गी, तेरापन्थी व दिगम्बर परम्पराएँ भले ही रहें किन्तु एक ऐसा मंच होना चाहिए जहाँ बैठकर अपने हृदय की बात कह सकें और जैन धर्म के विकास के लिए प्रयत्न कर सकें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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