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________________ द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन १४७ ● छवि; ग्राभ्यन्तर व्यक्तित्व की सन्त जीवन में जिन सद्गुणों की अनिवार्य आवश्यकता है उनमें विनय एक प्रमुख गुण है । विनय को धर्म का मूल कहा है और अहंकार को पाप का मूल बताया है। जिस साधक को अहंकार का काला नाग डस लेता है, वह साधना की सुधा का पान नहीं कर सकता । अहंकार और साधना में "तेजस्तिमिरयोरिव ।" प्रकाश और अन्धकार के समान वैर है, विरोध है । [ श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री श्रद्धेय सद्गुरुवर्य का जीवन विनम्र ही नहीं, अति विनम्र है। आप श्रमण संघ के उपाध्याय हैं, अनेक विशिष्ट उपाधियों से अलंकृत है तथा अपने भूतपूर्व सम्प्रदाय के मूर्धन्य वरिष्ठ सन्त हैं तथापि गुरुजनों का उसी प्रकार आदर करते हैं जैसे एक लघु सन्त करता है। आप प्रत्येक सम्प्रदाय के व्यक्तियों के साथ खुलकर विचार चर्चा करते हैं, उसमें किसी भी प्रकार का कार्पण्य या संकोच नहीं करते । जहाँ अन्य सन्त अन्य सम्प्रदायों के धार्मिक स्थानों में जाने में अपना अपमान समझते हैं वहाँ आपश्री बड़े ही प्रेम के साथ जाते हैं। आपश्री यह मानते हैं कि दूर रहकर दूरी को मिटाया नहीं जा सकता । स्नेह-सौजन्ययुक्त सम्पर्क से वह दूरी भी मिट जाती है जिसे कभी न मिटने वाला समझा जाता है । स्थानकवासी परम्परा में होने के कारण आपको मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं है, तथापि आप आबू के देलवाड़ा मन्दिर में, राणकपुर जी, केसरियाजी, आदि अनेक श्वेताम्बर मन्दिरों में और श्रवणबेलगोला, गजपन्या आदि अनेक दिगम्बर जैन मन्दिरों में आप पधारे हैं और आपने वहाँ की कलाकृतियों को गहराई से देखा है । आपश्री नासिक से सूरत पधार रहे थे । गजपन्था तीर्थ में उस समय चारित्र चक्र चूड़ामणि दिगम्बराचार्य शांतिसागर जी विराज रहे थे। दिगम्बर श्रावकों का भी आग्रह था आप वहाँ पधारे, और एक ही धर्मशाला में विराजे और अनेक विषयों पर उनसे विचार चर्चाएँ भी हुई। आपकी के उदारतापूर्ण विचारों से शान्तिसागर जी महाराज अत्यधिक प्रभावित हुए 1 Jain Education International बम्बई में आगम प्रभावक पुण्यविजयजी महाराज विराज रहे थे । वे वयस्थविर, ज्ञानस्थविर और दीक्षास्थविर थे । आपश्री उनसे मिलने के लिए बालकेश्वर के जैन मन्दिर के उपाश्रय में पधारे। लम्बे समय तक आगमिक और दार्शनिक विषयों पर आपश्री ने उनसे विचार चर्चाएं कीं । आपश्री की जिज्ञासा और विनयशीलता को निहार कर पुण्यविजयजी महाराज गद्गद् हो गए । और आपश्री का उनके साथ ऐसा स्नेहपूर्ण सम्बन्ध जीवन भर बना रहा। बम्बई के नानावटी अस्पताल में पं० मुनि यशोविजय जी के एक्सिडेंट होने के कारण वे भर्ती थे । आप वहाँ पधारे और उनके सुख-शान्ति के समाचार पूछे। आपकी स्नेह सद्भावना के कारण एक उल्लासमय वातावरण का निर्माण हुआ । परम श्रद्धेय उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी महाराज के साथ श्रमणसंघ के वैधानिक प्रश्नों को लेकर आपश्री का उनके साथ अत्यधिक मतभेद हो गया। अन्त में उपाचार्य श्री को श्रमण संघ के उपाचार्य पद से त्यागपत्र देना पड़ा । किन्तु जब आपश्री उदयपुर पधारे तब श्रद्धेय गणेशीलाल जी महाराज अस्वस्थ थे । उनका आपरेशन भी हुआ था । आपश्री अपनी शिष्य मंडली सहित वहाँ पर पधारे और सविधि वन्दन किया । गुरुदेव श्री की विनम्रता को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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