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________________ Gab. १३८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ ..... ... .... . ..+++ +++++++ + + +++++++++++++++++++++ + +++++ + +++ +++++++ +++ समुद्र की यात्रा करने वाले को सदा तूफान का भय बना रहता है। समुद्र की यात्रा करे और तूफान का सामना न करना पड़े यह संभव नहीं है । कुशल नाविक तूफानी वातावरण में भी नौका को अच्छी तरह से खेता है और उसे पार पहुँचाता है । युगपुरुष भी उफान और तूफान से घबराता नहीं है, किन्तु सतत जागरूक रहकर स्वयं को व समाज को अपने लक्ष्य पर पहुंचाता है। युगपुरुष बनाये नहीं जाते किन्तु स्वयं अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से बनते हैं। किन्तु सभी युगपुरुष एक समान नहीं होते । कितने ही युगपुरुष तेल-चित्र की भाँति होते हैं जो दूर से तो बहुत ही सुहावने लगते हैं किन्तु सन्निकट जाने पर उनमें अनेक विकृतियों के कुछ धब्बे भी दिखाई पड़ते हैं। कितने ही युगपुरुष जल-चित्र की तरह होते हैं जो दूर से सुहावने व चित्ताकर्षक नहीं लगते किन्तु सन्निकट से देखने पर सुन्दर ही नहीं अति सुन्दर लगते हैं। कितने ही युगपुरुष घास-फूस की आग की तरह क्षणिक प्रकाश देकर सदा के लिए बुझ जाते हैं। कितने ही युग-पुरुष अंगारे की तरह जलते रहते हैं, उनमें गरमी होती है किन्तु प्रकाश नहीं होता। किन्तु महानतम युगपुरुष वह है जो कोहिनूर हीरे की तरह सदा चमकता रहता है। चाहे दूर हो, चाहे सन्निकट, चाहे दिन हो चाहे रात, चाहे अकेला हो चाहे परिषद के बीच, चाहे सुप्त हो चाहे जागृत, जिसके जीवन में सदा एकरूपता होती है बहुरुपियापन नहीं होता । सूर्य की चमचमाती किरणों के सम्पर्क में जो भी आता है वह चमक उठता है वैसे ही युग-पुरुष के सम्पर्क से अधम से अधम व्यक्ति का जीवन भी महान बन जाता है। पतित भी पावन बन जाता है। स्थानकवासी जैन समाज के युग-पुरुषों की परम्परा की लड़ियों की कड़ी में श्रद्धय सद्गुरुवर्य अध्यात्मयोगी राजस्थानकेसरी, प्रसिद्धवक्ता उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी महाराज भी हैं। आपश्री ने समाज को नूतन विचार, नूतन चिन्तन और नूतन वाणी प्रदान की। समाज के उत्कर्ष के लिए, समाज के संगठन के लिए आपने प्रबल प्रयास किया, हजारों मीलों की पद-यात्राएँ की, अगणित कष्ट सहन किये किन्तु कभी कृतित्व का अहंकार नहीं किया। अनासक्तयोगी की तरह कार्य करके कभी उसके फल की आकांक्षा नहीं की। समाज के गौरव को सदा अक्षुण्ण रखने के लिए आपने सदा अपने आपको समर्पित किया । और जीवन का भोग देकर उसकी गरिमा में चार चाँद लगाते रहे हैं । आपश्री समाज के कर्मठ नेता हैं। आपने अपना सम्पूर्ण जीवन समाज की सेवा के लिए समर्पित किया। अतः समाज आपको हृदय से चाहता है। समाज को आपके नेतृत्व में विश्वास है। विरल व्यक्तित्व: आपका बाह्य व्यक्तित्व जितना नयनाभिराम है उससे भी अधिक अन्दर का जीवन मनोभिराम है। सद्गुरुदेव की बाह्य आकृति को देखकर दर्शक को अजंता और एलोरा की भव्यमूर्तियाँ सहज ही स्मरण हो आती हैं । दूर से आते हए दर्शक को प्रथम दर्शन में ऐसा लगता है जैसे स्वामी दयानन्द ही सामने बैठे हैं । विशाल देह, लम्बा कद, दीप्तिमान निर्मल गौर वर्ण, प्रशस्तभाल, उन्नत शीर्ष, केशरहित दीप्त कपाल, नुकीली ऊँची नाक, उन्नत वक्ष, सशक्त मांसल भुजाएँ, तेज पूर्ण शान्त मुख मण्डल, प्रेम-पीयूष वर्षाते हुए उनके दिव्य नेत्र को देखकर दर्शक मुग्ध हुए बिना नहीं रहता। उसमें सागर का विस्तार है, पौरुष का समुद्र ठाठे मार रहा है एवं दूसरी और करुणा का मेघ वर्षन भी हो रहा है । पुरुषत्व और मसृणता के ऐसे पुँजीभूत व्यक्तित्व की दूसरी आकृति देखने को मिलनी भी दुर्लभ होगी। वाणी में वीरों जैसी सुदृढ़ता, पैरों में अंगद जैसी शक्ति, खादी के धवल वस्त्रों में वेष्टित तपःपूत व्यक्तित्व जैसे मूर्तरूप धारण कर रहा हो । मुख पर मुखवस्त्रिका और स्कन्ध पर रजोहरण जैसे स्थानकवासी संस्कृति के आचार पक्ष और विचार पक्ष की सुन्दर अभिव्यक्ति हों। आप कभी भी मंजुल मुखाकृति पर निखरती हुई चिन्तन की दिव्य आभा, प्रभा देख सकते हैं । उदार आँखों के भीतर से छलकती हुई सहज स्नेह-सुधा का पान कर सकते हैं। वार्तालाप में सरस शालीनता, संयमी जीवन की विवेक बिम्बित क्रियाशीलता, जागृत मानस की उच्छल संवेदनशीलता, उदात्त उदारता को परख सकते हैं । प्रेम की पुनीत प्रतिमा, सरसता-सरलता की सुन्दर निधि, दृढ़ संकल्प और अद्भुत कार्यक्षमता से युक्त गुरुदेव श्री का बाह्य और आभ्यन्तर व्यक्तित्व बड़ा ही दिलचस्प और विलक्षण है। जन्मभूमि आपश्री का जन्म मेवाड़ (राजस्थान) में हुआ जो देश की स्वतन्त्रता और गौरव की रक्षा के लिए सैकड़ों वर्षों तक निरन्तर बलिदान करता रहा है। जहां के वीर योद्धाओं ने अपने कवोष्ण रक्त से मातृभूमि को सींचा, अपने प्राणों से भी अधिक मातृभूमि को प्यार किया और उसकी रक्षा के लिए राजस्थान के पुरुष ही नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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