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________________ द . ८६ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ + + + + + + . . . . . . . . . . . . महावीर के 'समयं गोयमः मा पमायए' के सिद्धान्त को सदा की प्रेरणा देना प्रारम्भ किया है। वस्तुतः उपाध्याय श्री ध्यान में रखते हैं। क्षणभर भी व्यर्थ नहीं गंवाते । पठन, उपाध्याय पद के दायित्व व गरिमा को पूर्णरूपेण निभा पाठन, चिन्तन, मनन व ध्यान में ही अपना अधिकांश समय रहे हैं। व्यतीत करते हैं । उपाध्याय पद से विभूषित होने के पहले उपाध्याय जी महाराज निवृत्तिमूलक धर्म में ओत-प्रोत से ही वे उपाध्याय का कर्तव्य-पालन करते रहे हैं। उन्होंने रहते हुए भी सद्प्रवृत्तियों के प्रोत्साहन से विलग नहीं अपने सभी शिष्यों व साध्वी वृन्द को जिस भाँति स्वाध्याय रहते तथापि उनमें आसक्तभाव व मोह नहीं रखते। व ज्ञानार्जन करने की प्रेरणा दी व उन्हें ज्ञान-ध्यान में उपाध्याय श्री की यह भी एक विशेषता है कि वे दर्शनार्थ पारंगत बनाया वह स्पृहणीय है। उन्हीं की सूझबूझ व सेवा में आने वाले व्यक्तियों को भी समय देते हैं और कृपा का फल है कि देवेन्द्र मुनि जी जैसे साहित्य मनीषी उनकी शंकाओं व समस्याओं का समाधान देने की कृपा व गणेश मुनिजी जैसे व्याख्यानवाचस्पति तैयार हुए हैं। करते हैं तथा उन्हें सन्मार्ग में लगाने का प्रयास करते हैं। रमेश मुनि, राजेन्द्र मुनि आदि अन्य सन्त भी उसी श्रेणी उपाध्याय जी महाराज गुणों के सागर हैं । क्वचित् गुणों में जा रहे हैं । पूज्य उपाध्याय जी महाराज ने श्रावक व का उल्लेख कर मैं अपने को कृतार्थ मानता हूँ। उपाध्याय श्राविकाओं को बाह्य तप-साधना के साथ-साथ स्वाध्याय जी महाराज की सेवा में शतशत वन्दन । AORA जागरूक सन्त-रत्न भंवरलाल फूलफगर (घोड़नदी) महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध सन्त तुकाराम ने कहा है- के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं जिससे गंभीर विषय भी सहज "मानव का जीवन स्वर्ण कलश के समान है, उसमें विलास हृदयंगम हो जाता है। की सुरा न भरकर सेवा की सुधा भरो।" जो व्यक्ति प्रस्तुत वर्षावास में और उसके पश्चात् प्रतिवर्ष मैं जीवन में सद्गुणों की सुधा भरता है उसका जीवन अमर गुरुदेव श्री के दर्शन करता रहा हूँ। गुरुदेव श्री के जीवन हो जाता है । सन्त का जीवन इसीलिए महान है, उनके की अद्भुत विशेषताओं के कारण मेरा आकर्षण सदा बढ़ता जीवन में त्याग है, वैराग्य है, नियम है, मर्यादा है । यही रहा है। मैंने यह अनुभव किया है कि गुरुदेव श्री की कारण है कि सम्राटों व धन-कुबेरों के सिर भी सन्तों के आगम साहित्य के प्रति अपार निष्ठा है । उनका मन्तव्य है चरणों में नत होते रहे हैं। कि आगमों के गम्भीर रहस्यों को जहाँ तक हो सके समझने परम श्रद्धेय उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी महाराज का प्रयास करो। यदि समझ में न आये तो भी उस पर ऐसे ही त्यागनिष्ठ सन्तरत्न हैं। मैंने आप श्री के दर्शन अपार श्रद्धा रखो । क्योंकि आगमों के वचन आप्तवचन सर्वप्रथम सन् १९६७ में बंबई-कान्दावाड़ी में किये थे। हैं। उस पर श्रद्धा न रखना अज्ञानता है। सभी वस्तु को प्रथम दर्शन में ही मैं आपसे अत्यधिक प्रभावित हुआ। मैंने तर्क के तराजू पर तोलना उचित नहीं है । मुझे गुरुदेव श्री घोड़नदी संघ की ओर से वर्षावास की प्रार्थना की। गुरु. की यह बात बहुत पसन्द आयी। साथ ही गुरुदेव श्री देव श्री ने पूना पधारने पर हमारी प्रार्थना को सन्मान संयम-साधना के प्रति अत्यन्त जागरूक हैं। उन्हें संयमदिया । बंबई-घाटकोपर संघ का अत्यधिक आग्रह था। साधना में शिथिलता पसन्द नहीं है। प्रचार के नाम पर वहाँ के कोट्याधीश कई बार गुरुदेव श्री की सेवा में उप- जो साधक संयम को ताक में रखते हैं उन्हें आप अच्छा स्थित हुए। हमें भी शंका हुई कि कहीं गुरुदेव श्री कोट्या- नहीं समझते । आपका मानना है आचार के अभाव में धीश श्रेष्ठियों के चक्कर में पड़कर बंबई न पधार जायें। प्रचार में संचार नहीं हो सकता। जितना आचार तेजस्वी किन्तु गुरुदेव श्री ने कोट्याधीश श्रेष्ठियों की भी परवाह न होगा जीवन बोलता हुआ होगा, उतना प्रचार अपने आप कर हमारे यहाँ सन् १९६८ में वर्षावास किया। घोड़नदी हो जायगा । प्रदर्शन नहीं स्वदर्शन होना चाहिए । वर्षावास में दिन में तीन बार, चार बार, पांच बार जब मेरी गुरुदेव श्री पर अपार आस्था है । मैं उन्हें श्रमण भी समय मिलता मैं गुरुदेव श्री की सेवा में पहुंच संघ का एक तेजस्वी और वर्चस्वी सन्त मानता हूँ । उन्होंने जाता। मैंने गुरुदेव श्री से बृहद्-द्रव्य-संग्रह का भी अध्य- अपना जीवन समाज उत्थान के लिए समर्पित किया है। यन किया । और रात्रि में प्रतिदिन विविध आगमिक और हमें प्रेरणा प्रदान की है। मैं अनन्त श्रद्धा के साथ विषयों पर चर्चाएँ भी की। मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि गुरुदेव श्री के दीर्घायु की और स्वस्थता को मंगलमय गुरुदेव श्री जैन आगम साहित्य और दर्शन साहित्य के कामना करता हूँ। उनकी निर्मल छत्र-छाया में हमारा गम्भीर विद्वान हैं। उनका अध्ययन बहुत ही गहरा है। समाज विकास के पथ पर बढ़ता रहे यही मेरी मंगल जब वे विषय को समझाते हैं तो उसकी अन्तरात्मा विद्यार्थी कामना है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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