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________________ प्रथम खण्ड: अवार्चन ८३ ०० मार्ग पर बढ़े । वेदों की ऋचाएं, गीता एवं उपनिषद् के चिन्ता में अपनी साधना नहीं भूलते । ध्यान, मौन, तपस्या घोषों के बीच आगम की गाथाओं एवं णमोकारमन्त्र का एवं स्वाध्याय सतत करते रहते हैं । अनेक बार तो भरी निनाद उनके सांस्कृतिक व्यक्तित्व को एक विशिष्टता सभाओं में कार्यक्रम के बीच से ही इसलिए उठ जाते हैं प्रदान करता है। जैनदर्शन का अनेकान्त उनके जीवन में कि आपके मौन व ध्यान का समय हो गया। जहाँ आप फलित हुआ है, उनके कार्य एवं व्यवहार में उभरा है। पधारते हैं वहाँ तपस्याओं की झड़ी लग जाती है। जैन ही श्री पुष्करमुनिजी से मेरा सम्पर्क वर्षों पुराना है। नहीं, बल्कि अजैन भी तपस्याएं सहज-भाव से करते हैं । उनकी निकटता, स्नेह और वात्सल्य मिला है। उन्हें निकट जैन धर्म के तत्वों एवं जीवन-दर्शन को स्वयं के आचारसे जानने, देखने और सुनने के अनेक अवसर मिले हैं। श्री व्यवहार से लोगों को बताने वाले पूज्य पुष्कर मुनिजी का देवेन्द्रमुनि शास्त्री जैसे योग्य विद्वान् शिष्यों को निर्मित अभिनन्दन उनके लिए महत्व की बात नहीं, क्योंकि वे करने, स्वयं की आध्यात्मिक साधना में लीन रहने और समता के साधक हैं। गुणानुवाद कर हम अपनी कर्मसार्वजनिक उपदेशों में कहीं भी व्यक्तिकम नहीं होने देते। निर्जरा करें, इस दृष्टि से अभिनन्दन का यह अनुष्ठान नियत समय, नियमितचर्या और संयमित जीवन मुनिश्री प्रशंसनीय है। की विशेषता है। पूज्य पुष्कर मुनिजी के थोड़े बहुत सम्पर्क में मैंने हिमालय जैसी सुदृढ़ प्रलम्ब काया, गम्भीर घोषयुक्त उनमें एक सच्चे साधक का स्वरूप पाया, गुण दृष्टि देखी वाणी और बालकों जैसी निर्दोष मुस्कुराहट उनके व्यक्तित्व और फक्कड़पन भरी वह मस्ती देखी जो कम ही सन्तों में का प्रमुख आकर्षण हैं। व्याख्यान में बोलते हैं तो लगता पाई जाती है। राजा हो या रंक, निधन हो चाहे अमीर, है घोष कर रहे हैं और निर्धारित समय के बाद जब मौन पुष्करमुनि की नजरों में कोई बड़ा छोटा नहीं । व्याख्यान कर लेते हैं तो लगता है मानो श्वेत शिलाखंड स्थिर हो में भी किसी की ठकुरसुहाती या मुंहदेखी नहीं कहते । गया हो । शरीर जितना सुदृढ़ एवं वज जैसा लगता है जहाँ कभी, दोष या अवगुण नजर आया स्पष्ट शब्दों में हृदय उतना ही कोमल एवं दया ! दया एवं करुणा का कहने की निर्भयता रखते हैं। प्रवाह हृदय को सिंचित करता रहता है। मैं अभिनन्दन के स्वरों में अपना स्वर मिलता हुआ स्वयं की साधना को प्रमुख स्थान देकर लोक-कल्याण उनके प्रति विनम्र श्रद्धा व्यक्त करता हूँ। में प्रवृत्त होते हैं। दूसरों को उपदेश देने या तारने की धर्म के मर्मज्ञ श्री राधाकृष्ण रस्तोगी, एडवोकेट परमादरणीय श्री पुष्कर मुनि जी के साथ मेरा सम्पर्क प्रेरणा दी। 'स्वाध्यायान् मा प्रमदः' का पाठ पढ़ाया। किन्तु पन्द्रह वर्षों से है । दो बार मैं उनकी विहार यात्रा में साथ स्वाध्याय तोता रटन की तरह नहीं होनी चाहिए। जो भी ही रहा । एक बार सात दिन और दूसरी बार चार दिन । स्वाध्याय की जाय उसके मर्म को समझा जाय और उस इस यात्रा में मैंने आपश्री को बहुत ही सन्निकटता से देखा। मर्म को समझकर उसे जीवन में उतारा जाय; तभी जैनमुनियों से प्रथम परिचय आपसे ही हुआ था। जैन स्वाध्याय का सही लाभ हो सकता है। मुझे आपश्री की श्रमों की आचार-संहिता ने मुझे प्रभावित किया। मैं प्रस्तुत प्रेरणा से अत्यधिक लाभ हुआ। विहार यात्रा में आपसे तत्वार्थसूत्र भी पढ़ता रहा । और गुरुदेव श्री का जालोर वर्षावास था । मैं अभी दर्शनार्थ साथ ही जब भी समय मिलता तब आपसे जैन दर्शन, पहुंचा था। धर्म के सम्बन्ध में चर्चा चलने पर आपश्री ने वैदिक दर्शन आदि के सम्बन्ध में चर्चा करता। मुझे ऐसा बताया कि वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। आत्मधर्म अलग अनुभव हुआ कि आप महान् साधक के साथ गम्भीर विचा- चीज है और राष्ट्रधर्म अलग चीज है। स्थानाङ्ग सूत्र में रक भी हैं । आपके प्रवचनों को सुनने का भी मुझे अनेक भगवान महावीर ने राष्ट्रधर्म का उल्लेख किया है। जो बार अवसर मिला । आपके प्रवचन हृदयस्पर्शी होते हैं। व्यक्ति जिस राष्ट्र में रहता है उसके प्रति उसका कर्तव्य गम्भीर से गम्भीर विषयों को भी आप इस तरह से प्रस्तुत - है । यदि वह अपने कर्तव्य से व्युत होता है तो वह अपने करते हैं कि सुनने वाला श्रोता मन्त्र मुग्ध हो जाता है। राष्ट्रधर्म से च्युत होता है। यदि राष्ट्रधर्म से युक्त होगा वार्तालाप के प्रसंग में आपश्री ने मुझे स्वाध्याय की तो व्यक्ति भी धर्म का उपासक होगा । पहले राष्ट्रधर्म है' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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