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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
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नारी समाज के हलचलों में रहती हुई भी ध्यानारूढ़ रहती है। भले ही वह एकान्त, शान्त, जंगल में एकाकी आसन न लगाती हो, और भले ही योगियों की तरह योग का प्रदर्शन न करती हो, क्योंकि उसका शारीरिक संस्थान इस प्रकार का है कि वह योगियों की तरह बाह्यरूप से साधना न कर पाती, पर प्रतिपल प्रतिक्षण तत्त्व के अनुशीलन में अग्रणी रह सकती है और अपनी प्रभा से जन-मानस को योग साधना की ओर अग्रसर कर सकती है।
योग की आठवीं दृष्टि का नाम 'परा' है। परा का अर्थ 'उस पार' है। जो जीवन के उस पार ले जाने वाली हो, संसार से पार उतारने वाली हो, वह परा-दृष्टि है। नारी पुत्र, पौत्र तथा पति के लिए सर्वस्व समर्पण कर असंग दोष से मुक्त रहती है। स्नेह सद्भावना के साथ वह संकटों से पार उतारती है, संशयों को नष्ट करती है और समाधि में स्थिर करती है। मेरी दृष्टि से नारी के उस ज्वलन्त रूप का चित्रण आचार्य हरिभद्र ने परादृष्टि में किया है
समाधे निष्ठा तु परा तदासंग विवजिता।
सात्मीकृत प्रवृत्तिश्च तदुत्तीर्णाशयेति च ॥' प्रस्तुत निबन्ध में आचार्यप्रवर हरिभद्र सूरि की आठ योगदृष्टियों का अवलम्बन लेकर मैंने अपनी कल्पना से योगदृष्टियों का सम्बन्ध भारतीय नारियों के साथ किया है। मेरा ऐसा मानना है कि भारत की विशिष्ट नारियों के आधार पर और उनके सद्गुणों को सलक्ष्य में रखकर ही इन दृष्टियों के नाम रखे गये हों। नारी नागिन नहीं अपितु नारायणी है। प्रेरणा की पुनीत प्रतिमा है, साधना की ओर बढ़ने की पवित्र प्रेरणा देने वाली विशिष्ट साधिका है । वह सदा साधना के क्षेत्र में आगे रही है। पुरुषों से उसके कदम साधना में सदा आगे रहे हैं । जैनदर्शन के अनुसार ही सर्वप्रथम मुक्ति प्राप्त करने वाली माता मरुदेवी, एक नारी ही थी। प्रत्येक युग में नारी साधना की दृष्टि से अग्रणी रही है। यदि आधुनिक युग में भी नारी योग के क्षेत्र में आगे बढ़े तो योग के नये-नये आयाम उद्घाटित हो सकते हैं । क्योंकि नारी में बह शक्ति है, वह सामर्थ्य है जो अधिक आध्यात्मिक विकास कर सकती है।
सन्दर्भ तथा सन्दर्भ स्थल: १ योगदृष्टिसमुच्चय, श्लोक २१ । २ योगदृष्टिसमुच्चय, श्लोक ४१ । ३ योगदृष्टिसमुच्चय, श्लोक ४६ । ४ योगदृष्टिसमुच्चय, श्लोक १५४ । ५ योगदृष्टिसमुच्चय, श्लोक १६२ । ६ योगदृष्टि समुच्चय, श्लोक १७८ ।
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