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________________ ७२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ + + + +++++ ++++++ ++ ++++++ ++ ++ संस्कृति का तलस्पर्शी अनुशीलन किया और अपने शिष्य का अवसर मिला और आपके सुशिष्य देवेन्द्र मुनि जी से और शिष्याओं को भी ज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ने की मिलकर मुझे अत्यधिक आल्हाद हुआ। उनकी जिज्ञासाप्रबल प्रेरणा प्रदान की। वृत्ति और स्थायी कार्य करने की तीव्र लगन ने मुझे आकजनश्रमण धुमक्कड़ हैं। वह हिमालय से कन्या- र्षित किया और आपकी शिष्य मंडली से मेरा सम्पर्क निरंकुमारी तक और अटक से कटक तक पैदल परिभ्रमण कर तर बढ़ता रहा । आपश्री की सरलता निरभिमानता, जन-जन के अन्तर्मानस में धर्म की ज्योति प्रज्वलित परदुःखकातरता, सेवा-परायणता, गुणग्राहकता एवं स्नेह करता है । उपाध्याय पुष्कर मुनि जी ने भी भारत के सौजन्यता अनुकरणीय है। विविध अंचलों में श्रमण मर्यादानुसार परिभ्रमण किया है उपाध्याय पुष्कर मुनिजी में एक महान् विशेषता है और जैनधर्म की प्रबल प्रभावना की है। परिभ्रमण के कि उन्होंने अपने शिष्यों को साहित्य के क्षेत्र में आगे साथ ही प्रवचन, विचार चर्चा, जप-साधना और साहित्य बढ़ाने का भगीरथ प्रयत्न किया है। स्नेह-सौजन्ययुक्त साधना भी आपकी निरंतर चलती रही । साहित्य की उनकी प्रबल प्रेरणा से उनके शिष्यों की प्रतिभा अधिकाविविध विधाओं में उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं । भाषा धिक विकसित हुई है। देवेन्द्रमुनिजी ने साहित्य की की दृष्टि से हम उस साहित्य को चार भागों में विभक्त विविध विधाओं में जो बिराटकाय मौलिक ग्रन्थ लिखे हैं कर सकते हैं। संस्कृत, हिन्दी, गुजराती और राजस्थानी। उसे देखकर मेरा हृदय आनन्दविभोर हो उठा। और शैली की दृष्टि से वह गद्य और पद्य दोनों में है। ज्योतिर्धर उनके अन्य शिष्य गणेशमुनि, रमेशमुनि, राजेन्द्रमुनिजी जैनाचार्य, विमलविभूतियाँ, आदि अनेक कृतियाँ पद्य में हैं की रचनाएँ भी पढ़ने को प्राप्त हुई, जिससे मेरे मन में यह और अनेक कृतियाँ अभी अप्रकाशित भी हैं। धर्म का कल्पवृक्ष दृढ़ धारणा बन गयो कि इन मुनि-प्रवरों के द्वारा जैन जीवन के आंगन में, श्रावक धर्म-दर्शन, जैन धर्म में दान साहित्य की महान् सेवा होगी। मैं वर्षों से ऐसे व्यक्तियों स्वरूप और विश्लेषण, आपकी गद्य साहित्य की उत्कृष्ट की अन्वेषणा करता रहा हूँ जिनमें प्रतिभा हो, लगन हो, कृतियाँ हैं । "जैन कथाएँ" तीस भाग भी आपने लिखे साथ ही कार्य करने की क्षमता हो और जब यह वस्तु हैं । राजस्थानी में 'मिनख पणा रो मौल' रामराज, देखता हूँ तो सहज ही आकर्षित हो जाता हूँ। मैं चाहता संस्कृति रा सुर, आदि श्रेष्ठ कृतियाँ हैं । गुजराती में हूँ कि जैसे उपाध्याय पुष्कर मुनिजी ने अपने सुयोग्य शिष्यों जिन्दगी नो आनन्द, जीवन नो झंकार, सफल जीवन, को तैयार कर शोध-प्रधान, चिन्तन-प्रधान साहित्य का ओंकार : एक अनुचिन्तन, प्रभृति अनेक कृतियाँ प्रकाशित सृजन किया, वैसे ही अन्य श्रमण और श्रमणियाँ प्रयास हुई हैं । साहित्य के साथ जप और ध्यान के प्रति आपकी करें तो जैन शासन की महान प्रभावना होगी। विशेष रुचि है । जप और ध्यान से कुछ अनहोने चमत्कार इस वर्ष हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन के स्वयं हो जाते हैं। जैनधर्म में आठ प्रकार के प्रभावक पावन प्रसंग पर मैं बीकानेर से हैदराबाद पहुँचा । मुझे माने गये हैं जो समय-समय पर अपने प्रभाव से शासन वहाँ ज्ञात हुआ कि पुष्कर मुनिजी का वर्षावास बैंगलोर में की रक्षा करते हैं और उसका विस्तार भी करते हैं। है, सत्संग, साहित्य व आध्यात्मिक चर्चा हेतु मैं बेंगलोर मेरा यह मानना है कि आप उसी तरह के एक प्रभावक पहुँचा । और पांच दिन तक मुनिश्री के निकट सम्पर्क में सन्त हैं। आप योग के द्वारा भौतिक वाद के युग में पले रहा । इस सपर्क ने मेरी श्रद्धा को अधिक बलवती पोसे हुए अध्यात्म-साधना को भूले-बिसरे हुए युवकों में बनाया। मैंने अनुभव किया कि पुष्कर मुनिजी एक सच्चे अधिकाधिक जैन शासन की प्रभावना करें। मैंने स्वयं अध्यात्मयोगी सन्त हैं, वृद्धावस्था होने पर भी उनमें देखा है कि आपके प्रभावोत्पादक व्यक्तित्व से प्रभावित युवकों से भी अधिक उत्साह है, लगन है। स्वयं सदा होकर एक विराट् भक्त मंडली तैयार हो गयी है। प्रसन्न रहते हैं और जो उनके सम्पर्क में आता है उन्हें भी जहाँ तक मुझे स्मरण है, आपके दर्शनों का प्रथम वे प्रसन्नता का सन्देश देते हैं। वार्तालाप के प्रसंग में मुझे सौभाग्य सन् १९५५ में राजस्थान की राजधानी जयपुर यह ज्ञात हुआ कि आपकी हार्दिक इच्छा है कि सामाजिक में मिला था। उस समय उपाध्याय अमर मुनि जी, मधु- प्रवृत्तियों से अलग-थलग रहकर अधिकाधिक आत्म-साधना कर मुनि जी तथा आप अपनी शिष्य मंडली सहित विराज की जाय । मेरा भी यह स्पष्ट मन्तव्य है कि श्रमण और रहे थे। आपके सौम्य और तेजस्वी व्यक्तित्व ने और श्रमणियों को लोकसम्पर्क कम कर अधिक समय उन्हें आत्मीय-भाव ने मुझे अत्यधिक प्रभावित किया। इसके स्वाध्याय और ध्यान में लगाना चाहिये जिससे ध्यान और पश्चात् सन् १९६० में जोधपुर में मिला। उस समय आप योग की जो परंपरा हमारे यहाँ लुप्त हो चुकी है, वह पुनः न्यायमूर्ति इन्द्रनाथ मोदी जी के मकान में ठहरे हुए थे। पुनरुज्जीवित हो सके। अत: मैं जैन संघ के मूर्धन्य धर्म-दर्शन और इतिहास पर लम्बे समय तक चर्चा करने मनीषियों से यह नम्र निवेदन करूगा कि वे इस कार्य में ०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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