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________________ स . १४८ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड BINIBAR योग-साधना : एक पर्यवेक्षण RPOOmkacc0000cocon उपाध्याय प्रवर्तक श्री फूलचन्दजी म० 'श्रमण' यह विराट विश्व चलचित्र की तरह परिवर्तनशील है। प्रतिपल प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है । जीवन में कभी उत्थान होता है तो कभी पतन, कभी विकास होता है तो कभी ह्रास । आध्यात्मिक दृष्टि से विकास होने का अर्थ है मोहनीय कर्म की प्रकृतियों को क्रमशः नष्ट करना । जब मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ पूर्ण रूप से नष्ट हो जाती हैं तब आत्मा का पुनः पतन नहीं होता। वह उत्तरोत्तर विकास करता जाता है और एक दिन अपने अंतिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। मानव-जीवन की सफलता धर्म साधना में है। साधना के अनेक अंग हैं। सर्वप्रथम मानव में मानवता का होना आवश्यक है। मानव जाति, धन, वैभव और विद्या से श्रेष्ठ और ज्येष्ठ नहीं माना गया है, अपितु मानवता का विकास ही श्रेष्ठता का प्रथम सोपान है। मानवता के बिना मानव निर्गन्ध पुष्प के समान है जो देखने में सुन्दर होने पर भी अपनी मधुर सौरभ के अभाव में जन-जन के मन को आकर्षित नहीं कर सकता। बिना मानवता के धर्म विकसित नहीं हो सकता। मानवता की सुदृढ़ नींव पर धर्म के भव्य भवन का निर्माण होता है। जैसे श्रेष्ठ फल के लिए माली की देखरेख आवश्यक है वैसे ही मानवता के विकास के लिए, सर्वांगीण परिपूर्णता के लिए धार्मिक संस्कार एवं साधना अपेक्षित है । मानव अपने पुरुषार्थ से ही साधना के पवित्र पथ पर बढ़ सकता है। साधना का मार्ग सरल नहीं अपितु कठिन है। सभी उस महामार्ग पर नहीं बढ़ सकते और न सभी की रुचि उस ओर बढ़ने की हो सकती है। प्राचीन मनीषियों ने साधक के विकास के लिए कुछ लक्षण निर्धारित किये हैं। शताब्दियाँ व्यतीत हो जाने पर भी उनका महत्त्व किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। यह एक ज्वलन्त सत्य है कि प्राचीन मनीषियों ने मानव और मानवता की स्पष्ट अनुभति के साथ जीवन और समाज के सम्बन्ध में भी बहत स्पष्ट चिन्तन किया है। उनका मन्तव्य है, वही साधक साधना के पथ पर निश्चित रूप से अग्रसर हो सकता है जिसकी माता पूर्ण रूप से सदाचारिणी हो, जिसके पिता का जीवन निर्मल हो, जो शारीरिक दृष्टि से पूर्ण स्वस्थ हो, जिसके विचार निर्मल हों और जो पवित्र आत्माओं की संगति करता हो। . प्रत्येक मानव में धर्म के प्रति रुचि नहीं होती। मनोविज्ञान की दृष्टि से इसके अनेक कारण हो सकते हैं। प्राचीन आचार्यों ने अनेक कारणों का उल्लेख करते हुए बताया है कि आलस्य, मोह, धर्मकथाश्रवण के प्रति अरुचि, जाति, कुल, बल, धन, रूप, तप, ज्ञान, प्रभृति का अहंकार, प्रमाद, कृपणता, भय, शोक, अज्ञान, विक्षेप, कुतूहल, क्रीड़ाएँ, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कारणों से मानव साधना नहीं कर सकता। धार्मिक साधना के लिए प्राकृतिक संवेगों पर नियन्त्रण आवश्यक है। बिना संयम के जीवन का कोई भी व्यापार संभव नहीं है। शारीरिक और मानसिक व्याधियों के सम्बन्ध में बहुत ही स्पष्ट कल्पना आचार्यों ने साधकों के समक्ष रखी है और साधक को राग, द्वेष, हिंसा, मोह आदि दुर्गुणों से भी बचने की प्रेरणा दी है। ___ साधक को जहाँ दुर्गुणों से बचने का संकेत किया गया है, वहाँ धर्म के प्रति श्रद्धा भी आवश्यक मानी है। बिना श्रद्धा के विकास संभव नहीं है। श्रद्धावान् व्यक्ति ही ज्ञान को उपलब्ध करता है। साधना के लिए सम्यक्श्रद्धा आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है। मिथ्यादृष्टि व्यक्ति के अन्तर्मानस में न तत्त्वों पर श्रद्धा होती है और न स्वयं पर ही। वह कर्म-फल के प्रति भी संदेहशील होता है। श्रद्धा में जीवन प्रस्थापित करने के लिए विरोधी तत्त्वों से बचना आवश्यक है। कुशाग्र-बुद्धि साधक हंस की तरह इसका निर्णय करता है। श्रद्धा का पूर्ण विकास ही साधक में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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