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________________ . १२० श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड अहोरात्रिद्वयोर्मध्ये ब्रह्मसंचारिणी कला । सा संध्या ज्ञाननिष्ठानां विशुद्ध परिकीर्तितम् ॥४॥४३॥ इस ग्रन्थ पर भगवद्गीता का बहुत असर है। इसमें जगह-जगह पर भगवद्गीता के अवतरण हैं। छठा पटल तो 'ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविइस गीतोक्ति की टीकात्मक ही है। कुछ अन्य उदाहरण हैं-भूतभवान भूतेश (११२३); कि कर्म किमकर्मेति (२१८-६); कर्मण्यकर्म यः पश्येत्" (२।१२); अग्निोतिरह, कृष्णः""(४१८-६); चातुर्वण्यं मया सृष्टम् ....(९।१६); काम्यानां कर्मणां न्यासं....(६।५२-५३); प्राप्य पुण्यकृतां लोकान् (९।११०-११३); अहं सर्वेषु भूतेषु (६।१४६) इत्यादि। भगवद्गीता का मूल भावार्थ लोग जानते नहीं। योग की दृष्टि से भगवद्गीता का अर्थ देखना चाहिए, ऐसा इस ग्रन्थ का अभिप्राय है। जैसे गीताशास्त्रस्य भावार्थं न जानन्ति यथार्थतः । प्रलयन्त्यन्यथायुक्त्या भ्रामिता विष्णमायया ॥४॥१०॥ इससे यह प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ श्रुतिमार्ग (किं योगः प्रोच्यते श्रुतौ ११३) और भगवद्गीतोक्त स्मृतिमार्ग का अभिमानी है। इसलिए श्रुति और गीतारूप स्मृति का प्रमाणरूप में उद्धरण किया है और उनका योगमार्ग के अनुकूल अर्थ बताया है। *** . ( शेष ११२ का ) जीवन जीना नहीं है। चाहे सुख की सुनहरी धूप हो, चाहे दुःख की काली निशा हो, साधक को दोनों ही स्थिति में समभाव में रहना चाहिए। गीता में इसे ही योग कहा है-'समत्वं योगमुच्यते' तथा 'योगः कर्मसु कौशलम्' है। योग की साधना सभी व्यक्तियों के लिए है-चाहे वह गृहस्थ हो या साधु हो। हाँ, पात्र की दृष्टि से उसमें भेद हो सकता है। गृहस्थाश्रम का जीवन भी एक दृष्टि से अखण्ड कर्मयोग का जीवन है। उसके जीवन में अनेक उत्तरदायित्व हैं। एतदर्थ भगवान महावीर ने गृहस्थाश्रम को 'घोर आश्रम' की संज्ञा प्रदान की है। गृहस्थाश्रम में रहकर योग की सम्यक साधना की जा सकती है। प्रतिदिन प्रातः और सन्ध्या को नियमितरूप से गृहस्थ को योगाभ्यास करना चाहिए, जिससे तन और मन दोनों स्वस्थ रह सकें। योग से तन में अपूर्व स्फूति पैदा होती है। कितना भी कार्य किया जाय तो भी थकान का अनुभव नहीं होगा और वहीं ताजगी बनी रहेगी तथा मन में भी वही उल्लास अंगड़ाइयाँ लेता रहेगा। मेरा स्वयं का अनुभव है कि जो व्यक्ति जीवन से हताश और निराश हो गये थे और आत्महत्या जैसे जघन्यकृत्य करने पर उतारू हो चुके थे, मेरे सम्पर्क में आकर और योगाभ्यास करने से आज वे तन से स्वस्थ और मन से प्रसन्न हैं। वस्तुतः योग बह संजीवनी की बूटी है जिससे सभी व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं । योग एक विज्ञान है। योगासनों से शरीर में 'इंडोक्राइन ग्रन्थियाँ' (Indocrine Glands) अपना कार्य कम कर देती हैं और हारमोन्स ग्रन्थियाँ अपना कार्य प्रारम्भ करती हैं। उससे वह अन्तःस्राव 'कार्टेक्स' अर्थात् मस्तिष्क में जाता है जिससे उस व्यक्ति को मानसिक शान्ति मिलती है तथा उसका मानसिक सन्तुलन बना रहता है। उसके नर्वस सिस्टम (Nervous System), मज्जातन्तु और नाड़ी संस्थान श्रेष्ठ होते हैं। अत: सतत योगाभ्यास कर जीवन का सच्चा और अच्छा आनन्द प्राप्त करना चाहिए। ★★★ ० ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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