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________________ प्रथम खण्ड : श्रद्धार्चन ६७ . +++++ ++ ++ ++++++++ +++++++++++ ++++ ++ ++ ++++ ++ ++ ++++ ++ --- --- उच्च जीवन 0 साध्वीश्री प्रकाशवतीजी भारत के ऋषि-महर्षियों ने जीवन का तीन रूपों में आसुरी जीवन के विपरीत जीवन की श्रेष्ठ कोटी वर्गीकरण किया है है-दैवी जीवन । जीवन में जब सत्य का सहारा हो, १ आसुरी जीवन अहिंसा का आलोक हो, प्रेम का प्रदीप हो, करुणा का २ दैवी जीवन कमनीय कुञ्ज हो, संयम का शस्त्र हो, आत्मानुशासन का ३ आध्यात्मिक जीवन आधार हो, सज्ञानता का सम्बल हो, तो जीवन श्लाघ्य हो आसुरी जीवन में मानव भोग-विलास, रागद्वेष, सत्ता जाता है। यही तो जीवन का दैवी रूप है। महत्ता के दल-दल में ग्रस्त तथाकथित सांसारिक सुखोप- मानवोचित समस्त सहज धर्मों और गुणों का समुभोग की प्रधानता रहती है। प्रकट रूप में आसुरी जीवन च्चय है इस प्रकार का जीवन । स्वकेन्द्रियता से मुक्त भोगवाद का घोष है Eat drink and be marry इस होकर मनुष्य भटके पथिकों को उचित मार्ग पर अग्रसर कोटि के जीवनधारियों का यह नारा ही नहीं, अपितु प्रेरक करने की क्षमता का प्रयोग करना ही अपने लिए सही सूत्र भी है। रास्ता मानने लगे, तो उसकी मंजिल दैविक जीवन बन हमारे यहाँ पूर्वकाल में भी इस विशेष दृष्टि से जीवन जाती है, आत्मा का दीपक उसके मार्ग को आलोकित की महत्ता को देखा गया है । चार्वाक दर्शन इसी का प्रति- करता है। शीतल पवन का आंचल उसके श्रमजन्य स्वेदनिधित्व करता है। जिसका सन्देश है-- कण पोंछता है, आँधियाँ भी आती हैं, तो उसके मार्ग के "यावत जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घतं पिबेत्" काँटों को उड़ा ले जाती हैं। अन्धकार कभी आता भी है, यह उस घोर भोगवाद का मन्तव्य है कि देह ही सर्वस्व है, तो उसका ध्यान शेष जगत से हटाकर उसे आत्मलीन आत्मा का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं, देहावसान सर्वाव- करने के उद्देश्य से ही। सान है, सर्वनाश है। दैवी जीवन के सद्लक्षण मानव-देहधारी प्राणी को ___ भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः-अतः देह रहते यथार्थ मानव का गौरव प्रदान करते हैं। न केवल तन से हुए इस माध्यम से समुचित लाभ उठा लेना चाहिए। इस ही, वह मन से भी मानव होकर एक विशिष्ट दिव्यता का कोटि के चिन्तकों का मत रहा है कि जब तक जीओ अधिकारी पात्र बन जाता है। विश्वबन्धुत्व की महत् आनन्द व उल्लास के साथ जीओ। आमोद-प्रमोद के लिए धारणाओं का वह न केवल चिन्तक रह जाता है, अपितु यदि सामर्थ्य अनुमति न दे, तो भले ही ऋण कर लो- अभ्यास में स्वयं उन्हें उतार कर एक ऐसा अनूठा आदर्श इस साधन के लिए कोई भी साधन वजित, निषिद्ध और अपने जीवन का प्रस्तुत करता है कि मुग्ध सामान्य जन अनैतिक नहीं है। उससे प्रभावित व प्रेरित हुए बिना नहीं रहते हैं। यही इस प्रकार के आसुरीजीवन की बुनियाद है अनन्त जीवन की सार्थकता है, सफलता है। कामनाएं, वासनाएँ, सांसारिकताएं, भौतिक सुखाभिलाषाएँ, आध्यात्मिक जीवन : आदि-आदि जो वस्तुतः मृग मरीचिकाएं हैं और मनुष्य को अपरिमित ज्ञानालोक से जगमगाता जीवन आध्याभटकाती रहती हैं। त्मिक स्तरीय जीवन है, जिसमें सम्यकज्ञान की लौ प्रचण्ड Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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