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________________ ११२ श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड योग : एक जीवन-पद्धति का. ब. सहस्रबुद्ध कितने ही महानुभाव यह समझते हैं कि योगाभ्यास करने के लिए सर्वसंग परित्याग कर एकन्त-शान्त जंगल में या हिमालय की गिरि-गुफाओं में जाना पड़ता है। कितने ही व्यक्तियों के मस्तिष्क में यह मिथ्या धारणा घर कर चुकी है कि योगाभ्यास से मस्तिष्क विकृत हो जाता है, इसके अधिकारीगण साधु और संन्यासी ही हैं, गृहस्थवर्ग नहीं । जब कभी भी वे किसी नगर या गाँव में योगाभ्यास के लिए सन्नद्ध गृहस्थ समुदाय को देखते है तो उनके मन में यह भ्रम का भूत सवार हो जाता है कि योगाभ्यास से कहीं इन गृहस्थियों की सुख-सुविधाएँ तथा जीवन का आनन्द चौपट न हो जाये। मैं यह साधिकार कह सकता है कि योगाभ्यास के लिए गृहस्थाश्रम को छोड़कर जंगल में जाने की आवश्यकता नहीं है, और न योगाभ्यास से मस्तिष्क विकृत होता है अपितु ज्ञानतन्तु निर्मल होने से बुद्धि तीक्ष्ण होती है, प्रतिभा जागृत होती है। योगाभ्यास से गृहस्थाश्रम चौपट नहीं होता किन्तु यम और नियम के सतत अभ्यास से जीवन संयमी बनता है और गृहस्थाश्रम का सच्चा आनन्द उपलब्ध होता है। हर्बर्ट विश्वविद्यालय में दो अनुभवी चिकित्सक 'ट्रान्सेण्डेण्टल मेडिटेशन' अर्थात् भावातीत ध्यान या शवासन से रुग्ण व्यक्तियों की चिकित्सा करते हैं। उन्होने उससे दो सहस्र व्यक्तियों के रक्तचाप को ठीक किया। पाश्चात्य देशों में इक्कावन विश्वविद्यालयों में योग पर अनुसन्धान का कार्य चल रहा है। मेडिकल टाइम्स प्रभृति अनेक अंग्रेजी भाषा की उच्चकोटि की पत्रिकाओं में आंग्ल भाषा में पाश्चात्य चिन्तकों के योग पर लेख आते हैं। वे लेख गम्भीर अध्ययन-मनन के पश्चात् लिखे हुए होते हैं, पर दुर्भाग्य है कि योग की जन्म-स्थली भारत में योग के सम्बन्ध में अत्यधिक उपेक्षा बरती जा रही है। हम लोगों में यह मिथ्या अहंकार घर कर चुका है कि योग हमारी संस्कृति और सभ्यता के कण-कण में फैला हुआ है। किन्तु आज योगाभ्यास के अभाव में हम योग के सम्बन्ध में बहुत ही कम जानते हैं। कुछ ही स्थलों पर योग के सम्बन्ध में अनुसन्धान का कार्य हो रहा है पर वह आटे में नमक जितना भी नहीं है । जैसे लोनावला में कैवल्यधाम, मध्यप्रदेश में सागर और रुड़की स्थलों पर तथा उत्तर प्रदेश में भी कुछ शिक्षण केन्द्र हैं किन्तु इतने विराट् देश में यह कार्य नहीं के सदृश ही है। हमें प्रस्तुत दिशा में अत्यधिक श्रम करने की आवश्यकता है। यदि इस दिशा में उपेक्षा रखी गयी तो वह दिन दूर नहीं है कि योग की जन्म-स्थली भारत में पैदा होने वाले विज्ञों को पाश्चात्य देशों में योग के अभ्यास के लिए जाना पड़ा करेगा। यह स्मरण रखना चाहिए कि योग केवल पुस्तकों के पठन-मात्र से नहीं आ सकता, और न टेलीविजन के देखने मात्र से आ सकता है और न केवल प्रवचन सुनने से ही सीखा जा सकता है किन्तु योग का सही अभ्यास गुरु के मार्ग-दर्शन से ही प्राप्त हो सकता है। गुरु के बिना योग का गुर (रहस्य) कदापि नहीं मिल सकता। गुरु साधक की पात्रता देखकर ही योग का मार्ग प्रदर्शित करता है। गुरु-गम्भीर रहस्यों को गुरु सरल व सुगम रीति से बताता है जिससे साधक सहज रूप से हृदयंगम कर सके। योग अभ्यास की वस्तु है, केवल जानने की नहीं। योग का अभ्यास करने से ही उसके वास्तविक आनन्द का अनुभव हो सकता है। एक दिन के अभ्यास से कोई चाहे कि मुझे लाभ प्राप्त हो जाये, यह कदापि सम्भव नहीं है। उसके लिए अपार धैर्य की आवश्यकता है। प्रतिदिन नियमित अभ्यास की आवश्यकता है। योग एक जीवन पद्धति है। शारीरिक और मानसिक स्वस्थता व प्रसन्नता के लिए योग का अभ्यास आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य है। योग हमें जीवन जीने की कला सिखाता है। हंसते और मुस्कराते हुए किस प्रकार जिया जा सकता है, यह योग के अभ्यास से ही आ सकता है। रोते और बिलखते हुए जीवन जीना वास्तविक ( शेषांश पृष्ठ १२० पर) ०० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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