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________________ तान्त्रिक साधनाएँ एक पर्यवेक्षण उनके उद्देश्यों का पूरक उपाय अथवा युक्ति प्रस्तुत विषय के सम्बन्ध से महत्त्वपूर्ण है। वैसे यह शब्द "तन्" और "" इन दो धातुओं से बना है, अतः विस्तारपूर्वक तत्त्व को अपने अधीन करना, यह अर्थ व्याकरण की दृष्टि से स्पष्ट होता है, जबकि "तन्" पद से प्रकृति और परमात्मा तथा "त्र" से स्वाधीन बनाने के भाव को ध्यान में रखकर "तन्त्र” का अर्थ – देवताओं की पूजा आदि उपकरणों से प्रकृति और परमेश्वर को अपने अनुकूल बनाना होता है। तथा परमेश्वर की उपासना के लिए जो उपयोगी साधन हैं वे भी "तन्त्र" ही कहलाते हैं । इन्हीं सब अर्थों को ध्यान में रखकर शास्त्रों में तन्त्र की परिभाषा दी गयी है सर्वेऽर्था येन तन्यन्ते त्रायन्ते च भयाज्जनान् । इति तन्त्रस्य तन्त्रत्वं तन्त्रज्ञाः परिचक्षते ॥ अर्थात् जिसके द्वारा सभी मन्त्रार्थी – अनुष्ठानों का विस्तारपूर्वक विचार ज्ञात हो तथा जिसके अनुसार कर्म करने पर लोगों की भय से रक्षा हो वही "तन्त्र" है, तन्त्रशास्त्र के मर्मज्ञों का यही कथन है । १०१ तन्त्र का दूसरा नाम आगम है । अतः तन्त्र और आगम एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। वैसे आगम के बारे में यह प्रसिद्ध है कि- आगतं शिवमत्रेभ्यो, पतं च गिरिजामुखे । मतं च वासुदेवस्य तत् आगम उच्यते ॥ तात्पर्य यह है कि जो शिवजी के मुखों से आया और पार्वतीजी के मुख में पहुँचा तथा जिसे विष्णु जी ने अनुमोदित किया वही आगम है। इस प्रकार आगमों या तन्त्रों के प्रथम प्रवक्ता शिव हैं तथा उसमें सम्मति देने वाले विष्णु हैं जबकि पार्वतीजी उसका श्रवण कर जीवों पर कृपा करके उपदेश देने वाली हैं। अतः भोग और मोक्ष के उपायों को बताने वाला शास्त्र " आगम" अथवा "तन्त्र" कहलाता है, यह स्पष्ट है । Jain Education International तन्त्र और जनसाधारण का भ्रम तन्त्रों के बारे में अनेक भ्रम फैले हुए हैं। हम अशिक्षितों को छोड़ दें, तब भी शिक्षित समाज तन्त्र की वास्तविक भावना से दूर केवल परम्परामूलक धारणाओं के आधार पर इस भ्रम से नहीं छूट पाया है कि 'तन्त्र का अर्थ, जादू-टोना है ।' अधिकांश जन सोचते हैं कि जैसे सड़क पर खेल करने वाला बाजीगर कुछ समय के लिए अपने करतब दिखाकर लोगों को आश्चर्य में डाल देता है उसी प्रकार "तन्त्र" भो कुछ करतब दिखाने मात्र का शास्त्र होता होगा और जैसे बाजीगर की सिद्धि क्षणिक होती है वैसे ही साबिक सिद्धि भी अधिक होगी। इसके अतिरिक्त तन्त्रों में उत्तरकाल में कुछ ऐसी बातें भी प्रविष्ट ही गयीं कि उनमें पंचमकार - मद्य, मांस, मीन (मछली), मुद्रा और मैथुन—का सेवन तथा शव साधना, बलिदान आदि के निर्देश प्राप्त होते हैं। किन्तु खेद है कि इन बातों को तो लोगों ने देखा पर इसके साथ ही तन्त्रों की "गोपनीयता" की ओर उनका ध्यान नहीं गया । निश्चित ही गोपनीयता के इस रहस्य की पृष्ठभूमि में ये लाक्षणिक शब्द प्रयुक्त हुए हैं। इन सब निर्देशों का एक विशिष्ट आध्यात्मिक अर्थ है जिसे शास्त्रों से तथा गुरु-परम्परा से ही जाना जा सकता है। वाममार्ग या वामाचार का अर्थ भी इसी प्रकार संकेत से सम्बद्ध है। इसमें जो बात सामान्य समाज समझता है, वह कदापि नहीं है। एक यह भी कारण इस शास्त्र के प्रति दुर्भाव रखने का है कि मध्यकाल में जब इस देश में बौद्धों के हीनयान पंथ का प्रचार बलशाली था तथा विदेशी आक्रमणों से त्रस्त जनता कुछ करने में अपने आपको अशक्त पाकर ऐसे मार्गों का अवलम्बन ले रही थी, तब हमारे सन्त कवियों ने स्वयं तन्त्र साधना के बल पर ही लोगों को 'भक्ति' की ओर प्रेरित किया— जो कि आत्मशान्ति और आत्मकल्याण का एक सुगम उपाय था । ऐसे समय में कुछ प्रासंगिक रूप में तन्त्रों की निन्दा भी हुई जो बाद में हीन दृष्टि का कारण बनी । अस्तु, यह नितान्त सत्य है कि "तन्त्रों की उदात्त भावना एवं विशुद्ध आचार पद्धति के वास्तविक ज्ञान के अभाव से ही लोगों में इस शास्त्र के प्रति घृणा उपजी है और कतिपय स्वार्थी लोग तुच्छ क्रियाओं-आडम्बरों के द्वारा जनसाधारण को तन्त्र के नाम पर जो ठग लेते हैं, वह भी इसमें हेतु हैं। अतः इस साहित्य का पूर्णज्ञान प्राप्त किये बिना घृणा करना भूल है । वस्तुतः "तंत्र" क्या है ? जैसा कि हमने ऊपर तन्त्र के शब्दार्थ में दिखाया है कि "यह एक स्वतन्त्र शास्त्र है, जो पूजा और For Private & Personal Use Only KUNTALA www.jainelibrary.org
SR No.012012
Book TitlePushkarmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
PublisherRajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1969
Total Pages1188
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size39 MB
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