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________________ ५० ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : ऐसे महामान्य विद्वान् स्व० मुख्तार सा० के चरणों में मैं पुनः पुनः सादर वन्दना निवेदन करता हुआ अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हूँ । अनुभवी विद्वान् * स्व० पण्डित तनसुखलाल काला, बम्बई पूज्य स्वर्गीय ब्रह्मचारी रतनचन्दजी मुख्तार के 'शङ्कासमाधान' शीर्षक लेख जैनदर्शन, जैनगजट आदि में निकलते रहते थे । 'शंकासमाधान' में वे अनेक प्राचीन आचार्यों द्वारा रचित शास्त्रों के प्रमाण सदा देते रहते थे । धर्म रक्षार्थं 'अकालमरण', 'क्रमबद्धपर्याय' श्रादि अनेक ट्रैक्ट उन्होंने लिखे । उनके अनुज श्री नेमिचन्दजी जैन का तथा उनका धवलादि ग्रन्थों का अच्छा अध्ययन हुआ। दोनों बन्धु शास्त्रस्वाध्याय में साथ-साथ संलग्न रहते थे। मेरा उनका बम्बई, इन्दौर, मोरेना आदि कई जगह समागम हुआ । बम्बई में गुलालवाड़ी में तथा श्री चन्द्रप्रभ दिगम्बर जैन मन्दिर भूलेश्वर में उनके प्रवचन भी मैंने सुने थे । धार्मिक समाज को उनके शंका समाधान शीर्षक लेखों से एवं ट्रैक्टों से अच्छा लाभ पहुँचा । मैं उनके प्रति अपनी विनीत श्रद्धाञ्जलि प्रेपित करता हूँ । सरस्वती के वरद पुत्र * स्व० पण्डित तेजपालजी काला, नांदगाँव धर्मभूषण, विद्वत्न, माननीय पण्डित रतनचन्दजी मुख्तार से मेरा सबसे पहले कब सम्पर्क हुआ, यह यद्यपि मुझे याद नहीं है तथापि करीब पन्द्रह-बीस वर्षों से भारत शान्तिवीर दिगम्बर जैन सिद्धान्त संरक्षिणी सभा तथा भा० दिगम्बर जैन शास्त्रिपरिषद् के एक वरिष्ठ नेता एवं विद्वान् के रूप में मैं उनसे सदैव मिलता रहा । मैंने उनको समस्त भारतीय दिगम्बर जैन समाज में माँ सरस्वती के वरदपुत्र के रूप में पाया । ऐसा लगता है कि उनकी बुद्धिमती माता ने उनको जन्मते ही सरस्वती-गुटिका की वह घूँटी दी थी कि जिसके कारण माननीय पण्डित रतनचन्दजी मुख्तार समस्त दिगम्बर जैन समाज में एक महान् प्रतिभाशाली विद्वान् के रूप में शोभायमान होते थे । जिनवाणी के चारों अनुयोगों के उपलब्ध महान् ग्रन्थों और उनकी टीकाओं का जैसा तलस्पर्शी ज्ञान आपको था वैसी योग्यता और क्षमता अन्य विद्वानों में बहुत कम देखने को मिलती है । आपकी स्मृति इतनी विलक्षण थी कि किसी भी अनुयोग सम्बन्धी उत्पन्न शङ्का का समाधान आप तत्काल ग्रन्थों के प्रमाण से जबानी देकर सबको आश्चर्य में डाल देते थे, अतः आप सरस्वती कण्ठ भूषरण थे, इसमें कोई सन्देह नहीं है । माननीय मुख्तारजी के ज्ञान और विद्वत्ता की यह विशेषता थी कि उनका ज्ञान अन्य वर्तमान विद्वानों की तरह केवल भार स्वरूप नहीं था । सम्यग्ज्ञान के साथ-साथ उनकी धर्मश्रद्धा अचल थी और चारित्र निर्मल था । वे द्वितीयप्रतिमाधारी नैष्ठिक व्रती थे । वे यद्यपि सर्वसङ्गपरित्यक्त मुनि नहीं थे तथापि व्रती भी उनका जीवन रत्नत्रय की आभा से अलंकृत था । पण्डितजी घर में भी जल में कमल की सन्तुष्ट स्थितप्रज्ञ का सा जीवनयापन करते थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only गृहस्थ जीवन में तरह निर्मोह और www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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