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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ८६७ तीसरे गुणस्थान में वह चारित्र होना चाहिये, किन्तु तीसरे गुणस्थान में चारित्र का सद्भाव किसी को भी इष्ट नहीं है । प्रनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शन की घातक हैं इसीलिये दूसरे गुणस्थान में कुमति व कुश्रुतज्ञान कहा गया है । -जं. ग. 9-7-70 / VII / हंसकुमार ओवरसियर शंका- श्री पं० राजधरलालजी व्याकरणाचार्य का यह मत है कि अनन्तानुबन्धी कषायोदय के अभाव में चारित्र गुण का अंश प्रगट होता है। उनसे प्रश्न हुआ कि अनन्तानुबन्धो के अभाव में जो चारित्र गुण प्रगट हुआ वह औपशमिकचारित्र है या क्षायोपशमिकचारित्र है या क्षायिकचारित्र है या औदयिकभाव है पारिणामिकभाव है ? श्री पं० राजधरलालजी ने कहा कि अनन्तानुबन्धो के अभाव में जो चारित्रगुण का अंश प्रगट होता है वह क्षायोपशमिकभाव है । क्या यह ठीक है ? समाधान -- पंडितजी की यह कल्पना निम्न सूत्रों के विरुद्ध है "असंयताः आयेषुचतुर्षु गुणस्थानेषु । असंयतः पुनरौवधिकेन भावेन ।" ( सर्वार्थसिद्धि १८ ) प्रथम चार गुणस्थानों में जीव असंयत होते हैं । वह प्रसंयतभाव औदयिकभाव है । द्वादशांग में भी इसी प्रकार कहा है "ओवइएण भावेण पुणो असंजदो || ६ || सम्मविट्ठीए तिष्णि भावे भणिऊण असंजदत्तस्स कदमो भावो होवि ति जाणावणटुमेवं सुत्तमागदं । संजमघावीणं कम्माणमुदएण जेणसो तेण असंजदो त्ति ओवइओ भावो ।" ( धवल पु० ५ पृ० २०१ ) चतुर्थं गुणस्थानवर्ती प्रसंयतसम्यग्दृष्टि का असंयतत्व औदयिकभाव है || ६ || सम्यग्दृष्टिके सम्यक्त्व को पशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक ऐसे तीन भाव कहकर उसके असंयतत्व की अपेक्षा कौनसा भाव होता है इस बात को बतलाने के लिये यह सूत्र आया है । चूंकि संयम को अर्थात् चारित्र को घात करनेवाले कर्मों के उदय से यह प्रसंयतरूप होता है, इसलिये 'असंयत' औदयिकभाव है । इसप्रकार श्री गौतम गणधर आदि सभी आचार्यों ने चारित्रगुण की अपेक्षा इस गुणस्थान में औदयिकभाव कहा है क्षायोपशमिकभाव नहीं कहा है । यदि चारित्रगुण का कुछ अंश भी प्रगट हो जाता तो प्राचार्य महाराज प्रौदयिकभाव न कहकर क्षायोपशमिकभाव कहते, जैसा कि तीसरे गुणस्थान में सम्यक्त्व के अवयव को क्षायोपशमिक कहा है । 'पडिबंधिकम्मोदए संते वि जो उवलम्भइ जीवगुणावयवो सो खओवसमिओ उच्चइ ।' अर्थ – प्रतिबन्धी कर्म के उदय होने पर भी जीव के गुण का जो अवयव अर्थात् अंश प्रगट होता है, वह गुणांश क्षायोपशमिक कहलाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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