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________________ ८६० ] अनन्तानुबन्धो की चारित्र प्रतिबन्धकता का स्पष्टीकरण शंका नं० १ - धवल पु० १ पृ० १६९ पर समाधान करते हुए जो कहा है कि- "नहीं क्योंकि अनन्तानुauthate चारित्र का प्रतिबन्ध करती है इसलिये यहाँ उसके क्षयोपशम से तृतीय गुणस्थान नहीं कहा गया है" तो इससे क्या यह ध्वनित नहीं होता कि अनन्तानुबन्धीकषाय चारित्र को ही प्रतिबंधक है, सम्यक्त्व की प्रतिबंधक नहीं है, किन्तु ऐसा मानने पर विरोध होता है । इसका समन्वय कैसे हो ? यहाँ किस विवक्षा से अनन्तानुबन्धी को मात्र चारित्र की प्रतिबंधक कहा गया है ? [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । समाधान - धवल पु० १ पृ० १६८ पर यह लिखा है- "तस्य चारित्रप्रतिबन्धकत्वात् ।" इसका अर्थ यह है कि "अनन्तानुबन्धी चारित्रमोहनीय की प्रकृति है अतः उसके क्षयोपशम से तीसरे गुणस्थान में क्षायोपशमिकभाव नहीं कहा, क्योंकि प्रथम चार गुणस्थानों में दर्शन मोहनीयकर्म की विवक्षा है ।" यहाँ पर 'चारित्र - प्रतिबंधक' का अर्थ 'चारित्रमोहनीय' है । इसका खुलासा इसप्रकार है मिच्छे खलु ओदइओ, बिदिये पुण पारणामिओ भावो । मिस्से खओवसमिओ, अविश्वसम्मम्हि तिष्णेव ॥११॥ एदे भावा नियमा, दंसणमोहं पहुच्च भणिदा हु । चारितं णत्थि जदो, अविरद अंतेसु ठाणेसु ॥१२॥ ( गो जी. ) प्रथम गुणस्थान में औदयिकभाव है, दूसरे गुणस्थान में पारिणामिकभाव है, तीसरे मिश्रगुणस्थान में क्षायोपशमिकभाव है, चौथे अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान में औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक ये तीनों भाव हैं । ये भाव दर्शनमोहनीय कर्म की अपेक्षा से कहे गये हैं, क्योंकि चतुर्थ गुणस्थानपर्यंत चारित्र नहीं होता है । इस आई प्रमाण से सिद्ध है कि प्रथम चार गुणस्थानों में दर्शनमोहनीय कर्म की विवक्षा है, अन्यथा सासादन में अनन्तानुबन्धी के उदय की अपेक्षा से औदयिकभाव कहते । "आदिमच बुगुणद्वाणभावपरूवणाए दंसणमोहवदिरित्तसेसकम्मेसु विववखाभावा ।" अर्थ - आदि के चार गुणस्थानों सम्बन्धी भावों की प्ररूपणा में दर्शनमोहनीयकर्म के सिवाय शेष कर्मों के उदय की विवक्षा का अभाव । ( धवल पु. ५ पृ. १९७ ) "सम्यग्दर्शनचारित्रप्रतिबन्ध्यनन्तानुबन्ध्युदयोत्पादित विपरीताभिनिवेशस्य तत्र सत्त्वाद्भवति मिथ्यादृष्टिरपि तु मिथ्यात्व कर्मोदयजनितविपरीताभिनिवेशाभावात् न तस्य मिथ्यादृष्टिव्यपदेशः, किन्तु सासावन इति व्यपदिश्यते । किमिति मिथ्यादृष्टिरिति न व्यपदिश्यते चेन्न, अनन्तानुबन्धिनां द्विस्वभावत्वप्रतिपावनफलत्वात् । न च दर्शनमोहनीयस्योदयादुपशमात्क्षयात्क्षयोपशमाद्वा सासादन परिणामः प्राणिनामुपजायते येन मिथ्यादृष्टिः सम्यग्दृष्टिः सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति चोच्येत । यस्माच्च विपरीताभिनिवेशोऽभूदनन्तानुबंधिनो, न तद्दर्शनमोहनीयं तस्य चारित्रावरणत्वात् । तस्योभयप्रतिबन्धकस्वादुभयव्यपदेशो न्याय्य इति चेन्न इष्टत्वात् । सूत्रे तथाऽनुपदेशोऽप्यपितनयापेक्षः । विवक्षित दर्शन मोहोदयोपशमक्षयक्षयोपशममन्तरेणोत्पन्नत्वात्पारिणामिकः सासावनगुणः । " ( धवल पु० १ पृ० १६४-१६५ ) - सम्यग्दर्शन और चारित्र' को प्रतिबन्ध करने वाली अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से उत्पन्न हुआ विपरीताभिनिवेश दूसरे गुणस्थान में पाया जाता है, इसलिये द्वितीय गुणस्थानवर्ती जीव मिथ्यादृष्टि है । किन्तु Jain Education International १. यद्यपि अनुवादक महोदय ने 'स्वरूपाचरणचारित' लिखा है, किन्तु मूल में 'स्वरूपाचरण' का द्योतक कोई शब्द नहीं है । यही भूल अक्टूबर १६६८ के 'सन्मति संदेश' में की गई है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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