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________________ ८५८ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार । क्या चौथे गुणस्थान में साक्षात् रत्नत्रय प्रकट होता है ? शंका-२ मा १९६४ के सोनगढ़ के पत्र हिन्दी आत्मधर्म पृ० ६१५ पर लिखा है-"चौथे गुणस्थान में मिथ्यात्व का त्याग होने पर साक्षात् रत्नत्रय प्रगट होता है ।" क्या यह कयन ठीक है? समाधान-रत्नत्रय का अभिप्राय सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप तीनरत्न से है। सम्यकचारित्र का लक्षण इस प्रकार कहा गया है हिंसानृतचौर्येभ्यो मथनसेवापरिग्रहाभ्यां च । पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥४९॥ ( रत्न. क. पा.) पाप की प्रणालीरूप अर्थात् मानवरूप जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इनसे विरत होना व्रत है वह सम्यग्ज्ञानी का चारित्र है। चतर्थगणस्थान का नाम अविरतसम्यग्दृष्टि है। जिस जीवके मिथ्यात्वप्रकृति, सम्यग्मिध्यात्वप्रक्रति. अनन्तानबन्धी-क्रोध-मान-माया लोभ इन छह प्रकृतियों के अनुदय के कारण मिथ्यात्व का त्याग हो जाने से सम्य. व तो प्रगट हो गया, किन्तु हिंसा आदि पाप-प्रणाली से विरत न होने के कारण चारित्र प्रगट नहीं हुआ है वह चौथे गणस्थान वाला अविरत-सम्यग्दृष्टि है अथवा प्रसंयतसम्यम्हष्टि है। कहा भी है णो ईदियेसु विरो, णो जीवे तसे चाधि । जो सद्दहदि जिणुत्तं, सम्माइट्ठी अविरवो सो ॥ धवल पु. १ पृ.७३ जो इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से विरत नहीं है, किन्तु जिनेन्द्र द्वारा कथित प्रवचन का श्रद्धान करता है वह अविरतसम्यग्दष्टि है। इस प्रविरति अर्थात् प्रसंयम के कारण उस चतुर्थगुणस्थानवाले सम्यग्दृष्टि के अधिक व दृढ़तर कमंबंध होता है। सम्मादिद्धिस्स वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होवि । होदि हु हस्थिण्हाणं चुदच्छिवकम्मतं तस्य ॥ १०॥४९ ॥ मूलाचार संस्कृत टीका-अपगतात् कर्मणो बहुतरोपादानमसंयमनिमित्तस्येति प्रदर्शनाय हस्तिस्नानोपन्यासः। चंदच्छिवः कर्मव एकत्र बेष्ठत्यन्यत्रोद्वष्ठयति तपसः निर्जरयति कर्मासंयमभावेन बहुतरं गृह्णाति कठिन च करोतीति ॥ ४९ ॥ अविरतसम्यग्दृष्टि का तप उपकारक नहीं है, क्योंकि गजस्नान के समान जितना कर्म आत्मा से छूट जाता है उससे बहतर कर्म असंयम से बंध जाता है । अथवा जैसे बर्मा का एक पाव भाग रज्जू से मुक्त होता है. दसरा भाग रज्जू से दृढ़ वेष्टित होता है । वैसे ही तप से असंयतसम्यग्हष्टि जितनी कर्म-निर्जरा करता है उससे अधिक दृढ़ कर्मबंध असंयमसे कर लेता है। इन प्रार्ष वाक्यों से स्पष्ट है कि चतुर्थगुणस्थान में अविरतसम्यग्दृष्टि के चारित्र न होने के कारण रत्नत्रय नहीं है। इतना ही नहीं मोक्षमार्ग भी नहीं है, क्योंकि रत्नत्रय ही मोक्षमार्ग है। कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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