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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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"सम्माइटो-ण च णवपयत्यविसय-रुइ-पच्चय-सद्धाहि विणा झाणं संभवति, तप्पत्तिकारणसंवेगणिव्वेयाणं अण्णत्थ असंभवावो चत्तासेसबझंतरंगगंयो ...." (धवल पु० १३ पृ. ६५)
वह ध्याता सम्यग्दृष्टि होता है, कारण कि नौ पदार्थ विषयक रुचि प्रतीति और श्रद्धा के बिना ध्यानकी प्राप्ति संभव नहीं है, क्योंकि उसकी प्रवृत्ति के मुख्य कारण संवेग और निर्वेद अन्यत्र नहीं हो सकते। वह ध्याता समस्त बहिरंग-अंतरंग परिग्रह का त्यागी होता है।
यदि यह कहा जाय कि चतुर्थगुणस्थान में धर्मध्यान का कथन आर्ष ग्रन्थों में पाया जाता है फिर गृहस्थ के ध्यान अर्थात् स्वरूप स्थिरता का क्यों निषेध किया गया है ? इसका उत्तर यह दिया गया है कि गृहस्थ के जो दान, पूजा, भक्ति आदि होती है वह धर्मध्यान है।
जिण-साहगृणुक्कित्तण पसंसणा विणय दाणसंपण्णा।
सुव-सोल-संजमदा धम्मज्झारणे मुरण्यव्वा ॥ (धवल पु० १३ पृ० ७६ ) इस गाथा में बतलाया गया है कि "जिन और साधु के गुणों का कीर्तन करना, प्रशंसा करना, विनय करना, दान सम्पन्नता आदि ये सब धर्मध्यान हैं।"
इन आर्ष ग्रन्थों से सिद्ध हो जाता है कि चतुर्थगुणस्थानवाले के स्वरूप में स्थिरता, रमणता अर्थात् स्वरूपाचरणचारित्र नहीं होता है । दूसरे "चैतन्यमनुभूतिः स्यात् ।" इन आर्षवाक्यों में यह बतलाया गया है कि अनुभूति चैतन्यगुण की पर्याय है, चारित्रगुण की पर्याय नहीं है ।
यदि यह कहा जाय कि चतुर्थगुणस्थानवर्ती असंयतसम्यग्दष्टि के जो संवर व निर्जरा होती है, वह चारित्र के बिना नहीं हो सकती प्रतः असंयतसम्यग्दृष्टि के चारित्र मानना चाहिये, सो यह भी ठीक नहीं है।
प्रथम तो असंयतसम्यग्दृष्टि के निर्जरा नहीं होती है उसके पूर्वबद्धकर्म जो प्रतिसमय निर्जीणं होता है उससे अधिक कर्म असंयम के कारण बांध लेता है। ऐसा मूलाचार गाथा ५२ के आधार पर बतलाया है जाचुका है। दूसरे, मिध्यादृष्टि के भी चारित्र मानना पड़ेगा, क्योंकि उसके भी प्रायोग्यलब्धि व करणलब्धि में सवर व निर्जरा, स्थितिकांडकघात व अनुभागकाण्डकघात पाया जाता है ।
यहाँ पर शंका हो सकती है कि जब असंयतसम्यग्दृष्टि के चारित्र का प्रभाव है तो उसकी निरर्गल प्रवृत्ति होगी और निरर्गल प्रवृत्तिवाले के सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता? सम्यग्दृष्टि की ऐसी क्रिया नहीं होती जिससे सम्यरदर्शन में अतिचार या दोष लगे। "शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतीचाराः।"
"मूढत्रयं मदाश्चाष्टौ तथानायतनानि षट् ।
अष्टौ शङ्कावयश्चेति हरदोषाः पंचविंशतिः ॥ अर्थात-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिस्तवन ये पांच सम्यग्दृष्टि के अतिचार हैं। तीन मूढ़ता, आठमद, छहअनायतन और शंकादि दोष आठ ये २५ सम्यग्दर्शन के दोष हैं।
सम्यग्दष्टि की लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता, गुरुमूढ़तारूप प्रवृत्ति नहीं होती है। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और सुदरशरीर का मद सम्यग्दृष्टि नहीं करता, कुगुरु, कुदेव और कुशास्त्र और इन तीनों के भक्त ये छह
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