SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 870
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२६ ] [पं• रतनचन्द जैन मुख्तार । नघन विध्यते वैविध्यं मोक्षवत्मनः । विशिष्टकालयुक्तस्य तत्त्रयस्यैव शक्तितः ॥४६॥ अभिप्राय इस प्रकार है प्रश्न-यदि रत्नत्रय को अन्य सहकारी कारणों की अपेक्षा रखता हुआ मोक्ष का कारण माना जायगा तो 'रत्नत्रय मोक्ष मार्ग है', यह कथन विरोध को प्राप्त हो जायगा? उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि विशिष्टकाल से युक्त रत्नत्रय के ही मोक्ष प्राप्त कराने की शक्ति है। ____ इस आषं प्रमाण से भी सिद्ध हो जाता है कि तेरहवें गुणस्थान के प्रथम क्षण में मोक्ष की प्राप्ति का कारण चारित्र को अपूर्णता नहीं है, क्योंकि वहाँ पर रत्नत्रय तो पूर्ण ही है, किन्तु अन्य सहकारी कारणों के अभाव के कारण मोक्ष नहीं होता। अतः क्षायिकरत्नत्रय या क्षायिकचारित्र तो पूर्ण ही हैं उसमें अपूर्णता का विकल्प करना आर्ष ग्रन्थ विरुद्ध है। ___सम्पादकीय अभिमत-रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है । तदनुसार वह जीवन्मुक्ति यानी प्रहंत दशा का साक्षात् कारण है और पूर्णमुक्ति का परम्पराकारण है । चारित्रमोहनीयकर्म के निर्मूल नाश से बारहवेंगुणस्थान का तथा चारित्रमोहनीयकर्म के सम्पूर्ण उपशम से प्रगट होनेवाला यथाख्यातचारित्र पूर्णचारित्र है, उसमें फिर चारित्र का एक अंश भी और नहीं कहीं से बढ़ सकता है या बढ़ता है । ११ वें, १२ वें, १३ वें, १४ में गुणस्थानों के तथा सिद्ध परमेष्ठी के चारित्रगुण में रंचमात्र भी अन्तर नहीं है। अतः प्रारम्भ होने की अपेक्षा सम्यग्ज्ञान सम्यक चारित्र से पहले होता है, पूर्ण होने की अपेक्षा चारित्र ( यथाख्यातचारित्र ) पहले होता है और ज्ञान की पूर्णता पीछे, १३ वें गुणस्थान में होती है। स्वरूपाचरणचारित्र चतुर्थगुणस्थान और चारित्र शंका-२३ नवम्बर १९६७ के जनसंदेश के सम्पादकीय लेख में लिखा है-'आचार्य नेमिचंद्र सिद्धान्त. चक्रवर्ती ने यदि चतुर्थगुणस्थान तक चारित्र नहीं बतलाया है तो हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि उन्होंने सिद्धों में भी चारित्र का निषेध किया है । अतः जो चारित्र चतुर्थगुणस्थान में नहीं है, वह सिद्धों में भी नहीं है। और जो चारित्र सिद्धों में है, उसकी झलक चतुर्थ गुणस्थान में भी है, क्योंकि सम्यक्त्वगुण दोनों में है अतः उसका सहभावी चारित्र भी दोनों में है।' इस पर निम्न बातें समझने योग्य हैं (क) क्या आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने सिद्धों में चारित्र का निषेध किया है ? क्या क्षायिकभाव भी नष्ट हो जाता है ? (ख) क्या असंयतसम्यग्दृष्टि के भी चारित्र है ? क्या यह चारित्र उसी जाति का है जिस जाति का चारित्र सिद्धों में है ? (ग) क्या सम्यग्दर्शन के साथ चारित्र भी अवश्यंभावी है ? क्या चारित्र के बिना सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy