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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ८२३ "एवं जहाक्खादसंजमट्ठाणं उवसंत-खीण-सजोगि-अजो-गिणऐक्कं चेव जहण्णुक्कस्स वदिरित्तं होदि, कसायाभावादो।" (धवल ६ पृ० २८६) अर्थात-यह यथाख्यात संयमस्थान उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोग केवली इनके एक ही जघन्य व उत्कृष्ट भेदों से रहित होता है, क्योंकि इन सबके कषायों का अभाव है। श्री वीरसेनाचार्य के इस पार्षवाक्य से यह स्पष्ट हो जाता है कि ११ वें १२ वें १३ वें और चौदहवें. गुरणस्थानों में यथाख्यातसंयम है और वह यथाख्यातचारित्र इन चारों गुणस्थानों में एक ही प्रकार का है, क्योंकि यथाख्यातचारित्र में जघन्य, मध्यम उत्कृष्ट का भेद नहीं है। फिर भी कुछ विद्वानों का ऐसा कहना है कि 'सम्यरदर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ।" इस सूत्र में कहे गये क्रमानुसार यह सिद्ध होता है कि ज्ञान की पूर्णता अर्थात् क्षायिक ज्ञान हो जाने पर यथाख्यातचारित्र की पूर्णता होनी चाहिये, अतः ११ वें १२ वें गुणस्थान में यथाख्यातचारित्र की पूर्णता नहीं है, यहाँ तक कि तेरहवें और चौदहवेंगुणस्थानों में भी यथाख्यातचारित्र की पूर्णता स्वीकार नहीं करते, किन्तु चौदहवेंगुणस्थान के अन्त में यथाख्यातचारित्र की पूर्णता बतलाते हैं। इसप्रकार यथाख्यातचारित्र में भी भेद करते हैं। नयविवक्षा न समझने के कारण ऐसी मान्यता बना रखी है। सम्यग्दर्शन होने पर सम्यग्ज्ञान तो उसके साथ-साथ हो जाता है कहा भी है "युगपवात्मलाभे साहचर्यावुभयोरपि पूर्वत्वम्, यथा साहचर्यात्पर्वतनारदयोः, पर्वतग्रहणेन नारवस्य महणं नारदग्रहणेन वा पर्वतस्य तथा सम्यग्दर्शनस्य सम्यग्ज्ञानस्य वा अन्यतरस्यात्मलाभे चारित्रमुत्तरं भजनीयम् ।" ( रा. वा. १/१ ) अर्थात-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान इन दोनों का एक ही काल आत्म लाभ है, अतः सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान इन दोनों के पूर्वपना है। जैसे साहचर्य से पर्वत और नारद इन दोनों का एक के ग्रहण से ग्रहणपना होता है, पर्वत के ग्रहण करने से नारद का भी ग्रहण हो जाता है और नारद का ग्रहण करने से पर्वत का भी ग्रहण हो जाता है। इसी तरह सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान इन दोनों के साहचर्यसम्बन्ध से एक के ग्रहण करनेपर उन दोनों का ग्रहण हो जाता है। अतः सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान इन दोनों में से एक का प्रात्मलाभ होने पर उत्तर जो चारित्र है सो भजनीय है। पूर्व सम्यग्दर्शनलाभे देशचारित्रं संयतासंयतस्य, सर्वचारित्रं च प्रमत्तादारभ्य सूक्ष्मसाम्परायान्तानां यच्च. यावच्च नियमावस्ति, संपूर्णयथाख्यातचारित्रं तु भजनीयम् ।" रा. वा. ११ । अर्थात-नय की विवक्षा से सम्यग्दर्शन का तथा सम्यग्ज्ञान का आत्मलाभ एक ही काल में होता है, इसलिये पूर्वपना सम्यग्दर्शन को सम्यग्ज्ञान से समानरूप से है। वहाँ पूर्व जो सम्यग्दर्शन, उसका लाभ होने पर संयतासंयत का देशचारित्र भजनीय है। देशचारित्र का लाभ होने पर उत्तर जो सञ्चारित्र, अर्थात् सकलचारित्र प्रमत्तगुणस्थान से सूक्ष्मसाम्परायपयंत, भजनीय है । सकलचारित्र हो जाने पर उत्तर यथाख्यात जो सम्पूर्ण चारित्र है, वह भजनीय है। श्री अकलंकदेव के इन आर्षवाक्यों से यह सिद्ध हो जाता है कि सम्यग्दर्शन का सहचर सम्यग्ज्ञान पूर्व में हो जाता है और चारित्र के तीन भेद देश चारित्र, सकलचारित्र और यथाख्यातचारित्र बाद में होते हैं, किन्तु क्षायिकज्ञान यथाख्यातचारित्र के पश्चात होता है। इसीप्रकार श्री उमास्वामि आचार्य ने भी कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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