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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ८२१ अर्थ-ध्यान के फलस्वरूप पूर्व संचित कर्मों की स्थिति के विनाश और उनके गलने को देखकर केवलीभगवान के उपचार से ध्यान कहा गया है, क्योंकि निर्जरा का कारण ध्यान है और निर्जरा वहाँ पाई जाती है। केवलियों के ध्यान उपचार से ही कहा है। शंका-साक्षात् मोक्ष का कारण क्या है ? समाधान-यथाख्यातचारित्र साक्षात् मोक्षका कारण है, कहा भी है "यथा आत्मस्वभावोऽवस्थितः तथैवाख्यातत्वात यथाख्यातमिस्याख्यायते। ...... इतिरिह विवक्षातः समाप्तिद्योतनो दृष्टव्यः । ततो यथाख्यातचारित्रात सकलकर्मक्षयसमाप्तिर्भवतीति ज्ञाप्यते ।" [ रा. वा. ९।१८/१२-१३॥पृ. ६१७-१८ ] अर्थात-इसे यथाख्यातचारित्र इसलिये कहते हैं कि जैसा आत्मस्वभाव है वैसा ही इसमें आख्यात प्राप्त होता है। यहाँ 'इति' शब्द समाप्ति सूचक है, इसलिये इस यथाख्यातचारित्र से सकलकर्मक्षय की परिसमाप्ति होती है। "यस्वभावावस्थितास्तिस्वरूपं परभावास्थितास्तित्वव्यावृत्तत्वेनात्यन्तमनिन्वितं तवत्र साक्षान्मोक्षमार्गत्वे. नावधारणीयमिति ।" पंचास्तिकाय गाथा १५४ टीका । अर्थ-स्वभाव में अवस्थित अस्तित्वरूप चारित्र, जो कि परभाव में अवस्थित अस्तित्व से भिन्न होने के कारण प्रत्यन्त प्रनिन्दित ( राग, द्वेषरहित ) है वह चारित्र ( यथाख्यातचारित्र ) यहाँ साक्षात् मोक्षमार्गरूप अवधारना। -जं. ग. 17-6-65/VIII-IX/........ (१) उपशान्त कषाय प्रादि चारों गुणस्थानों के चारित्र में किंचित् भी अन्तर नहीं (२) रत्नत्रय में मोक्ष हेतुत्व अनादिकाल से भ्रमण करते हुए इस जीव को मनुष्य पर्याय का पाना अति-दुर्लभ है। विशेष पुण्योदय से यह मनुष्य पर्याय मिलती है, क्योंकि साक्षात् मुक्ति का मार्ग ऐसा सम्यक्चारित्ररूप धर्म इस मनुष्यपर्याय में ही धारण हो सकता है । यद्यपि अन्य पर्यायों में धर्म का मूल सम्यग्दर्शन ( सण मूलो धम्मो ) प्राप्त हो सकता है तथापि चारित्र नहीं हो सकता। इस मनुष्यपर्याय को पाकर जिसने सम्यक्चारित्र धारण नहीं किया उसका मनुष्य जन्म पाना व्यर्थ है। सम्यकचारित्र के बिना सम्यग्दर्शन का विशेष महत्व नहीं है, क्योंकि मात्र सम्यग्दर्शन से मोक्ष नहीं होता। श्री कुन्दकुन्दस्वामी ने कहा भी है कि अविरतसम्यग्दृष्टि का तप भी कर्मों के निर्मूल करने में असमर्थ है। सम्माविट्ठिस्स वि अविरवस्स ण तवो महागुणो होदि । होवि हु हथिण्हाणं चुदच्छिव कम्मं तं तस्स ॥ ४९ ।। ( मूलाचार अधिकार ) श्री १०८ वसुनन्दि आचार्य कुत संस्कृत टीका-"कर्मनिमलनं कर्त्तमसमर्थ तपोऽसंयतस्य दर्शनान्वितस्यापि कुतो यस्माद्भवति हस्तिस्नानं ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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