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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ८१५ "बायो वाचिकः कायिकश्च बाह्यन्द्रियप्रत्यक्षत्वात, आभ्यन्तरो मानसः छवस्थाप्रत्यक्षत्वात, तस्योपरमो सम्यक् चारित्रमित्युच्यते । स पुनः परमोत्कृष्टो भवति वीतरागेषु यथाख्यातचारित्रसंशकः । आरोतीयेषु संयतासंयतादिषु सक्षमसाम्परायिकान्तेषु प्रकर्षाप्रकर्षयोगी भवति ।" अर्थ-वचन संबंधी और कायसम्बन्धी क्रिया विशेष का नाम बाह्यक्रिया है, जात, बाह्य इन्द्रियों के प्रत्यक्ष का विषय है। बहरि मानसिक क्रिया विशेष को प्राभ्यन्तरक्रिया विशेष कहिये है, जाते छद्मस्थ को प्रत्यक्ष का विषय न होने ते तिन बाह्य-प्राभ्यंतर दोनों क्रियाओं का जो उपरम कहिये, उदासीन परिणति को लिये विषय-कषायादिकों से निवृत्तिरूप परिणाम ताकू सम्यकचारित्र कहिये है । सो यह सम्यकचारित्र यथाख्यातचारित्रस्वरूप करि वीतराग जे ग्यारहवे, बारहवें, तेरहवें, चौदहवेंगुणस्थानवर्ती संयमीनिके परमउत्कृष्टस्वरूप करि होवे है। संय छट्टै गुणस्थान कू आदि लेकर दशवेंगुणस्थानपर्यंत जे संयमी हैं, जिन्होंके यथासंभव कषायों की जैसी-जैसी मंदता होवे ताके अनुसार उत्कृष्ट अनुत्कृष्टरूप होवे है। (स्व. श्री पं० पन्नालाल न्यायालंकारकृत अर्थ )। श्री नेमिचन्द्र आचार्य ने चारित्र का लक्षण इसी प्रकार बृहद द्रव्यसंग्रह में कहा है बहिरमंतरकिरियारोहो भवकारणप्पणासटुं। णाणिस्स जं जिणुत्त तं परमं सम्मचारित्तं ॥४६॥ अर्थ संसार के कारणों को नष्ट करने के लिये ज्ञानी जीवों के जो बाह्य और अन्तरंग क्रियामों का निरोध है, वह उत्कृष्ट सम्यक्चारित्र है, ऐसा श्री जिनेन्द्र ने कहा है इस गाथा की संस्कृत टीका में कहा गया है-"परम उपेक्षा लक्षणवाला तथा निर्विकार स्वसंवेदनरूप शुद्धोपयोग का अविनाभूत उत्कृष्ट सम्यक्चारित्र जानना चाहिये। बाह्य में वचन, काय के शुभाशुभ व्यापाररूप और अंतरंग में मन के शुभाशुभ विकल्परूप, ऐसी क्रियाओं के व्यापार का निरोध ( त्याग)रूप वह चारित्र है। यह चारित्र, संसार के व्यापार का कारणभूत शुभाशुभ कर्म-आस्रव, उस आस्रव के विनाश के लिये है। संसार का कारण राग-द्वेषरूप मन, वचन, काय की प्रवृत्ति है। श्रेणी में बुद्धिपूर्वक राग-द्वेषरूप क्रिया का अभाव हो जाता है तथा यथाख्यातचारित्र में अबुद्धिपूर्वक राग-द्वेष का भी प्रभाव हो जाता है। रागद्वेष ही संसार का कारण है । इसीलिये यथाख्यातचारित्र परमोत्कृष्टचारित्र है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी चारित्र का लक्षण निम्नप्रकार कहा है चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो ति णिहिटो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥७॥ प्रवचनसार अर्थ-चारित्र वास्तव में धर्म है । जो धर्म है वह साम्य है। दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीयकर्मों के उदय से उत्पन्न होने वाले समस्त मोह और क्षोभ के अभाव के कारण अत्यन्त निर्विकार जीव का परिणाम सो साम्य है, ऐसा जिनेन्द्र ने कहा है । इस गाथा में भी श्री कुन्दकुन्दआचार्य ने भी साम्य को चारित्र कहा है। अर्थात् चारित्रमोहनीयकर्मोदय से होनेवाले विकारों से रहित जो निर्विकार परिणाम वह चारित्र है। यथाख्यातचारित्र में चारित्रमोहनीयकर्मोदय का अभाव होता है । अतः यथाख्यातचारित्र आत्मा का अत्यन्त निर्विकार परिणाम होने से परमोत्कृष्ट चारित्र है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने पंचास्तिकाय में साक्षात् मोक्षमार्ग का स्वरूप निम्नप्रकार कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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