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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [८०७ समाधान-गृहस्थावस्था में ग्रहण की हुई प्रोषधप्रतिमा का पालन मुनि के लिए प्रावश्यक नहीं है। गृहस्थ के प्रतिदिन आरम्भी व उद्योगी हिंसा होती है। वह इन हिंसा का त्यागी नहीं है। गृहस्थ श्रावक के निरन्तर मुनिव्रत धारण करने की भावना रहती है। मुनि के सर्वप्रकार की हिंसा का त्याग होता है; वे दिन में एक बार भोजन करते हैं, उपवास भी करते हैं। इस मुनिव्रत की शिक्षा के लिए प्रोषधोपवास का व्रत पाला जाता है। इसीकारण प्रोषधोपवास को शिक्षाक्त कहा है। जब स्वयं मुनि हो गया फिर प्रोषधप्रतिमा की क्या प्रावश्यकता रही। मुनि के तो निरन्तर ही प्रोषध है । -जं. सं. 28-6-56/VI/ र. ला. कटारिया, केकड़ी एषणासमिति व दस धर्म शंका-मुनराज जो आहार लेते हैं वह, तथा एषणासमिति पापरूप है या पुण्यरूप, क्योंकि इच्छा से ही तो माहार लेते होंगे, वह इच्छा पापरूप है या पुण्यरूप ? मिश्रधारा की बात नहीं, वो तो है ही। भावलिंगी मुनि को और मुनिराज की क्रिया शुभ, अशुभ दोनों ही होती होंगी, वह कौनसी और क्या है ? तथा बस धर्मरूप आत्मा का जो भाव है, वह पुण्यरूप है या धर्मरूप ? ___समाधान-एषणासमिति न पापरूप है न पुण्यरूप, किन्तु संवररूप है। आस्रवनिरोधः संवरः॥१॥ स गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रः॥ २॥ ( मो० शास्त्र ९ ) अर्थ-आस्रव का रुकना सो संवर है । वह संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र के द्वारा होता है। वद समिदगुत्तिओ धम्मागुपेहा परीसह जओय । चारित्तं बहुभेया गायग्वा, भावसंवर विसेसा ॥३५॥ प्र. सं. अर्थ-व्रत, समिति, गुप्ति, अनुप्रेक्षा, परीषहजय तथा अनेक प्रकार का चारित्र ते सब भाव संवर के विशेष ( भेद ) जानने चाहिए। ___ कर्म के उदय की बरजोरी से मुनि महाराज को भोजन की इच्छा होती है, किन्तु मुनि महाराज संयम की रक्षा के लिए आहार लेते हैं। पण्डित दौलतरामजी ने छहढाला में कहा है-ले तप बढ़ावत हेत, नहीं तन पौषत तज रसन को ॥ ६॥३ ॥ मुनि महाराज का आहार भी संवर का कारण है । मुनिराज की क्रियाएँ अशुभ नहीं होती हैं, क्योंकि उन्होंने सब पापों का, आरम्भ और परिग्रह का पूर्णरूप से त्याग कर दिया है। यदि कभी तीव्र कर्म के उदय से प्रार्तरूप अशुभ परिणाम प्रमत्तअवस्था में हो जावें तो उसकी यहाँ मुख्यता नहीं है । उत्तमक्षमा प्रादि दसधर्म तो जीव का स्वभाव है। जो वस्तु का स्वभाव होता है, वह धर्म होता है । कहा भी है-वत्थसहावो धम्मो अत: उत्तम क्षमादिरूप आत्मा के परिणाम धर्मरूप हैं । –णे. सं. 31-5-56/VI/ क. दे. गया मुनि के पांच मूलगुण शंका-सर्वार्थसिद्धि ९।४९ की टीका में "पंचानां मूलगुणानां" शब्द से कौनसे पांच मुलगुणों से प्रयोजन है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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