SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 848
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८०४ ] । पं० रतनचन्द जैन मुन्तार। नाग्न्यपरीषहजय कहते हैं। जिसको मन में विकार उत्पन्न होने की सम्भावना है या भय है वह परिग्रह न होते हुए भी पिच्छी प्रादि से अपने अङ्ग को ढकने की चेष्टा करेगा जिससे विकार यदि पा जावे तो प्रकट न हो। उसके बालकवत निर्विकार 'यथाजात रूप' नहीं होता है। वह नाग्न्यपरीषह को भी नहीं जीत सकता है। इस परीषह का नाम 'लज्जा परीषह' नहीं हो सकता क्योंकि विकार व लज्जा में अन्तर है । याचनापरीषहजय-संकेतादि करने पर आहारादि की प्राप्ति हो सकने पर भी जो आहारादि के लिए संकेत नहीं करते, भले ही उपवासादि के कारण क्षुधा सता रही हो। इसप्रकार याचना का अवसर पाने पर भी जो याचना नहीं करते अर्थात् जिनके मन में याचना का भाव भी नहीं आता, उनके याचनापरीषह जय होता है। इसको अयाचनापरीषहजय नहीं कह सकते। अरतिपरीषहजय-संयम की रक्षा करने के लिए उपवास, विहारादि करने पड़ते हैं जिनसे खेद उत्पन्न होता है। खेद उत्पन्न होने पर भी अथवा अन्य कारणों के उपस्थित होने पर भी जो संयम में परति नहीं करते उनके 'अरतिपरीषहजय' होती है । संयम में अरति का भाव न आना इसको रतिपरीषहजय कैसे कह सकते हैं ? सत्कारपुरस्कारपरीषहजय-सत्कार व पुरस्कार के अवसर प्राप्त होने पर सत्कार पुरस्कार के न होने पर भी मन में विकार का न पाना सत्कारपुरस्कारपरीषहजय है। यदि इस परीषहजय का यह अर्थ किया जाता कि अनादर और निन्दा होने पर भी मन में विकार न आवे तो इस परोषह का नाम 'असत्कार-पूरस्कार' हो सकता था। प्रज्ञा और अज्ञान-इन दोनों परीषहों का किसी एक परीषह से काम नहीं चल सकता है। 'ज्ञान का मद' और 'अज्ञान का खेद' इन दोनों में अन्तर है। अतः इन दोनों को एक नाम से कहना कठिन है। प्रमत्त मादिक संयतों के कषाय और दोषों के क्षीण न होने से सब परीषह सम्भव हैं । (स० सि० ९।१२) आर्यिका के प्रमत्तादि गुणस्थान सम्भव नहीं है। अतः उनकी परीषह का यहां पर कथन नहीं है। [ उक्त समाधान अपनी तुच्छबुद्धि के आधार पर किया है। यदि कहीं पर भूल रह गई हो या कोई विशेष बात रह गई हो तो ज्ञानीजन लिखने की कृपा करें। -ज.सं. 12-1-56/VI/ र. ला. जैन, केकड़ी गुप्ति शंका-संवररूपी गुति कौनसे गुणस्थानक से होती है ? या किस गुणस्थान में होती है ? समाधान-मुनि के तेरह प्रकार का चारित्र कहा है-पाँच महाव्रत, पांचसमिति और तीनगुप्ति । गुप्ति संवररूप है। ( मो. शा० अ० ९/सू० २) अत: छठे गुणस्थान से संवररूपी गुप्ति होती है। साम्परायिक आस्रव दसवें गुणस्थान तक होता है ग्यारहवें गुणस्थान से साम्परायिकआस्रव का संवर हो जाता है, किन्तु ईर्ष्यापथआस्रव होने लगता है जो तेरहवेंगुणस्थान तक होता है। चौदहवें में पूर्ण संवर हो जाता है, क्योंकि वहाँ पर योग का सर्वथा अभाव है अतः पूर्ण गुप्ति चौदहवेंगुणस्थान में होती है। -जं. सं. 10-1-57/VI/ दि. ज. स. एत्मादपुर सत्यवचन, भाषासमिति एवं वचनगुप्ति में अन्तर शंका-सत्यमहाव्रत, भाषासमिति, वचनगुप्ति इन तीनों में क्या अन्तर है ? Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy