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________________ ८०० ] [० रतनचन्द जैन मुस्तार । व्रत भंग कदापि उपादेय नहीं है शंका-रत्नकरण्ड श्रावकाचार प्र० ३९५ के प्रसंग से कोई नियमादि का भग समाधिमरण के अवसर में या अन्य प्रकार आकस्मिक मृत्यु की सम्भावना आदि के किसी अवसर में अपवादस्वरूप जीवन रक्षा के लिये और अन्य किसी कारण से करना और पोछे प्रायश्चित्त लेना ऐसा किन्हीं भी परिस्थितियों में उपादेय है या नहीं? यदि है तो किस प्रकार? समाधान-व्रत का मंग करना किसी भी अवस्था में उपादेय नहीं है। अपवाद का कोई नियम नहीं होता है। समाधिमरण के समय निर्यापकाचार्य जो कुछ भी उचित समझते हैं वह क्षपक के परिणामों को सुधारने के लिये परिस्थिति अनुसार करते हैं । जीवन-रक्षा के लिये व्रत भंग करना तो महान् पाप है। समाधिमरण की विशेष जानकारी के लिये भगवती आराधनासार का अध्ययन करना चाहिये। -जं. ग. 10-8-72/IX/ र. ला. जैन, मेरठ महाव्रत 'प्रमाद' नहीं है, किन्तु कषायों की निवृत्तिरूप है शंका-सोनगढ़ से प्रकाशित द्रव्यसंग्रह पृ. ३८ पर प्रमत्तसंयत की व्याख्या करते हुए अहिंसादि शुभोपयोगरूप महाव्रतों को प्रमाद कहा है। क्या यह ठीक है? समाधान -गोम्मटसार जीवकांड में प्रमत्तसंयत का कथन करते हुए प्रमाद के निम्न १५ भेद बतलाये हैं विकहा तहा कसाया इंदियणिद्दा तहेव पणयो य । चदु चदु पणमेगेगं होंति पमादा हु पण्णरस ॥ ३४ ॥ अर्थ-चार विकथा (स्त्री कथा, भक्तकथा, राष्ट्रकथा, अवनिपाल कथा ) चारकषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ ), पांच इन्द्रिय ( स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र ) एक निद्रा और एक स्नेह इसप्रकार ४+४+ ५+१+ १ कुल मिलाकर प्रमाद के १५ भेद हैं । अथवा विकथा के भेद २५ ( राजकथा, भोजनकथा, स्त्रीकथा, चोरकथा, धनकथा, बैरकथा, परखण्डनकथा, देशकथा, कपटकथा, गुणबन्धकथा, देवीकथा, निष्ठुरकथा, शून्यकथा, कन्दर्पकथा, अनुचितकथा, भंडकथा, मूर्खकथा, आत्मप्रशंसाकथा, परिवादकथा, ग्लानिकथा, परपीड़ाकथा, कलहकथा, परिग्रहकथा, साधारणकथा, संगीतकथा), कषाय २५ ( अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरणक्रोध मान, माया, लोभ, संज्वलनक्रोध, मान, माया, लोभ ये १६ कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, नपुसंकवेद, पुरुषवेद ये नवनोकषाय कुल २५ कषाय ), पाँचइन्द्रिय और मन ये छह, निद्रा ५ (प्रचला, निद्रा, प्रचला-प्रचला, निद्रा-निद्रा, स्त्यानगृद्धि ), प्रणय २ ( मोह, स्नेह ) इसप्रकार २५४२५४ ६x ५४२ को परस्पर गुणा करने से ३७५०० प्रमाद के भेद हैं। श्री वीरसेनाचार्य ने प्रमाद का लक्षण निम्न प्रकार किया है"को पमादो णाम ? चदुसंजलणणवणोकसायाणं तिव्वोवओ।" ( धवल पु०७ पृ० ११) चारसंज्वलनकषाय और नवनोकषाय, इन तेरह के तीव्र उदय का नाम प्रमाद है। प्रमाद के इस लक्षण से यह सिद्ध हो जाता है कि महाव्रत प्रमाद नहीं है, क्योंकि वह कषाय के तीव्र उदयरूप नहीं है, किन्तु कषाय को निवृत्तिरूप है। इसीलिये प्रमाद के १५ भेदों अथवा ३७५०० उत्तर भेदों में महाव्रत का उल्लेख नहीं किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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