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________________ ७९८ ] 'कदा सल्लेखना कर्तव्येत्याह ।' ( श्लोकवतिक ) अर्थ - सल्लेखना कब करनी चाहिये । 'मारणान्तिक सल्लेखनां जोषिता ॥७॥२२॥ ' ( मोक्षशास्त्र ) । मारणान्तिक सल्लेखना प्रीति पूर्वक सेवन करनी चाहिये । - इसी बात को अमृतचन्द्राचार्य ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा हैमरणान्तेऽवश्यमहं विधिना सल्लेखनां करिष्यामि । इति भावनापरिणतोऽनागतमपि पालयेदिदं शीलम् ।।१७६ ॥ [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार ! अर्थ- मैं मरणकालमें अवश्य ही शास्त्रोक्त विधिसे समाधिमरण करूंगा । मरणकाल आने से पूर्व इस प्रकार की भावना के द्वारा यह शीलव्रत पालना चाहिए । इससे स्पष्ट हो जाता है कि सल्लेखना की भावना तो मरण से पूर्व निरंतर रहती है, किन्तु सन्यास मरण समय ही धारण किया जाता है। छहढाला में भी कहा गया है ( संयम "मरण समय घर संन्यास तसु दोष नशावे ।" अतः श्रावक मरणसमय राग-द्वेष के त्याग के लिये समस्त परिग्रह का त्यागकर नग्न साधु हो सकता है। इसमें कुछ बाधा नहीं है। श्री अमितगति आचार्य ने श्रावकाचार में कहा है ज्ञाखा मरणागमनं तत्वमतिदु निवारमति गहनम् । पृष्ट्वा बाँधववर्गं करोति सल्लेखनां धीरः ॥६॥९८ ॥ आराधनां भगवतीं हृदये निधत्ते सज्ञानदर्शनचरित्रतपोमयों यः । निघुं तकर्ममलपंकमसौ महात्मा शर्मोदकं शिवसरोवरमेति हंसः ॥६॥९९॥ दुर्निवार और प्रतिगहन अर्थात् भयानक ऐसा जो मरणका प्रागमम ताहि जान करि निश्चय रूपमति वाला धीर पुरुष बांधव के समूह को पूछकर मोह छुड़ाय के आगम प्रमाण सल्लेखना विधि को श्रावक मांडे है । जो सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र - तपमयी भगवती आराधना को हृदय में धारे है सो यह हंसरूपी महात्मा मोक्षसरोवर को प्राप्त होय है । कैसा है मोक्षसरोवर जा विष कर्ममलरूप कीच का नाश भया है और सुखरूप जल जा विषं है । जिन मनुष्यों के अंडकोष या लिंग विकारी हैं वे समाधिमरण के योग्य नहीं होते हैं प्रर्थात् लोक में दुगुञ्छा के भय से निग्रन्थ नहीं होते, कोपीन ग्रहण करके साधुपद की भावना करने के योग्य होते हैं । Jain Education International - प्रवचनसार चारित्राधिकार में श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा भी हैजो रयणत्तयणासो सो भंगो जिणवरेहि णिद्दिट्ठो । सेसं भंगेण पुणो ण होदि सल्लेहणाअरिहो ॥ [ महावीरजी से प्रकाशित प्रवचनसार पृ० ५३८ ] टीका- न भवति सल्लेखनाहै: लोक दुगुच्छाभयेन निर्ग्रन्थरूपयोग्यो न भवति । कौपीनग्रहणेन तु भावनाभवतीत्यभिप्रायः । [ गाथा २२४ की टीका ] इसका अभिप्राय ऊपर लिखा जा चुका है । - जै. ग. 25-2-69 / VIII / शास्त्र सभा रेवाड़ी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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