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________________ ७८६ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार। कदलीघात से अथवा इतर कारणों से छूटे हुए शरीर को त्यक्त शरीर ( पंडित मरण या समाधिमरण ) कहते हैं । (धवल पु. १ पृ० २५ व २६ )। ---. ग. 23-5-63/म. ला. जैन श्वासोच्छ्वास निरोध से कुमरण होता है शंका-संयम के विनाश के भय से श्वासोच्छ्वास के निरोध से छोड़े हए शरीर को चावित क्यों माना जाता है ? जबकि त्यक्त शरीर वाला भी संयम के विनाश के भय से भोजन, जल आदि को छोड़ता है, श्वासोच्छवास निरोध और भोजननिरोध इन दोनों में निरोध के द्वारा मरण होने से कोई भेव नहीं है। समाधान-संयम शरीरके पाश्रित है। शरीर भोजन के प्राश्रित है अतः संयम की रक्षा के लिए साधु आहार लेते हैं। कहा भी है आहारसणे-देहो, देहेणतवो, तवेण रयसउणं । रयणासे वरणाणं, गाणे मोक्खो वोभणइ ॥५२१॥ भावसंग्रह अर्थ-आहार से शरीर रहता है। शरीर से तपश्चरण होता है । तप से कर्मरूपी रज का नाश होता है । कर्मरूपी रज का नाश होने पर उत्तम ज्ञान की प्राप्ति होती है। उत्तम ज्ञान से मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। मोक्षस्य कारणमभिष्टुतमत्रलोके, तद्धार्यते मुनिभिरंगबलात्तवन्नात् । तद्दीयते च गृहिणा, गुरु भक्ति-भाजा, तस्माद्धृतो गृहिजनेन विमुक्तिमार्गः ॥२॥१२॥ प. पं. अर्थ-लोक में मोक्ष के कारणीभूत जिस रत्नत्रय की स्तुति की जाती है, वह मुनियों के द्वारा शरीर की शक्ति से धारण किया जाता है। वह शरीर की शक्ति भोजन से प्राप्त होती है और वह भोजन अतिशय भक्ति से संयुक्त गृहस्थ के द्वारा दिया जाता है। इसी कारण वास्तव में उस मोक्षमार्ग को गृहस्थ जनों ने ही धारण किया है। सर्वो वांच्छति सौख्यमेव तनुभत्तन्मोक्षएव स्फुटं । दृष्ट्यावित्रय एव सिध्यति स तन्निग्रन्थ एवं स्थितम् ॥ तवृत्तिर्वपुषोऽस्य वृत्तिरशनात्तदवीयते श्रावकः। काले क्लिष्टतरेऽपि मोक्षपदवी प्रायस्ततो वर्तते ॥७८॥ [पन पं०] अर्थ-प्राणी सुख की ही इच्छा करते हैं, वह सुख स्पष्टतया मोक्ष में ही है। वह मोक्ष सम्यग्दर्शनादिस्वरूप रत्नत्रय के होने पर ही सिद्ध होता है। वह रत्नत्रय दिगम्बर साधु के ही होता है, उक्त साधु की स्थिति शरीर के निमित्त से होती है, उस शरीर की स्थिति भोजन के निमित्त से होती है। और वह भोजन श्रावकों के द्वारा दिया जाता है। इसप्रकार इस अतिशय क्लेशयुक्त काल में भी मोक्षमार्ग की प्रवृत्ति प्रायः उन श्रावकों के निमित्त से ही हो रही है। सन्तः सर्वसुरासुरेन्द्रमहितं मुक्तः परं कारणं । रत्नानां दधति त्रयं त्रिभुवनप्रद्योति काये सति ॥ वृत्तिस्तस्य यदन्नतः परमया भक्त्यापिताज्जायते । तेषां सद्गृहमेधिनां मुणतवां धर्मो न कस्य प्रियः ॥१॥१२॥ [पद्म. पं.] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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