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________________ ७८० [ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार। करने में उद्यत ऐसे आचार्य के पास जाने की इच्छा है; आप अनुज्ञा से अनुगृहीत करें। इसप्रकार पूछकर जब वह शिष्य-मूनि गुरु से आज्ञा पाता है तब वह अन्यत्र ज्ञानाध्ययन के लिए अकेला नहीं जाता है। वह तीन मुनि, दो मुनि अथवा एक मुनि अपने साथ लेकर जाता है। पुरा स्वगुरुपादांते शास्त्रं श्रत्वाऽखिलं पुनः । जिज्ञासायां स्वलोकान्यथा ग्रंथातिशये मुनिः ॥२४॥ भक्त्योपेत्य गुरुन् नत्वा युष्मत्पादप्रसादतः । अन्यन्मुनींद्रवृन्दं मे द्रष्ट वांछा प्रवर्तते ॥२५॥ इत्येवं बहुशः स्पृष्ट्वा लब्ध्वाऽनुज्ञां गुरोवजेत् । तिनकेन वा द्वाभ्यां बहुभिः सह नान्यथा ॥२६॥ आचारसार जो कोई मुनि अपने गुरु के समीप समस्त शास्त्रों का पठन-पाठन करले तथा सब शास्त्रों को सुनले, फिर उसकी इच्छा अन्य मुनियों के दर्शन करने की हो अथवा अन्य ग्रन्थों को देखने की इच्छा हो व अन्य ग्रन्थों के अर्थ जानने की इच्छा हो तो उनको बड़ी भक्ति से गुरु के पास आकर नमस्कार कर प्रार्थना करनी चाहिये कि हे प्रभो! आपके चरणकमलों का प्रसाद हो तो अन्य मुनिराजों के समूह के दर्शन के लिये मेरी इच्छा उत्पन्न हुई है। इसपर अपने गुरु से बार-बार पूछकर तथा आज्ञा लेकर वह मुनि अन्य अनेक मुनियों के साथ वा दो मनियों के साथ वा एक मुनि के साथ विहार करे, अकेले विहार न करे। एवमापृच्छ्य योगीन्द्रप्रेषितो गुरुणा यतिः । आत्मचतुर्थ एवात्मतृतीयो वा जितेन्द्रियः ॥५०॥ अथवात्मद्वितीयोऽसौनत्वाचार्यादिपाठकानू । निर्गच्छति ततः संघादेकाकी न तु जातुचित् ॥५१॥ मूलाचारप्रदीप इसप्रकार वह अपने गुरु से पूछता है और यदि गुरु जाने की आज्ञा दे देते हैं तो अन्य तीन साधुओं को सपने साथ लेकर अथवा अन्य दो साधुनों को अपने साथ लेकर अथवा कम से कम एक मुनि को अपने साथ लेकर अत्यन्त जितेन्द्रिय वह साधु आचार्य उपाध्याय तथा वृद्ध मुनियों को नमस्कार कर उस संघ से निकलता है। किसी भी मुनि को अकेले कभी नहीं निकलना चाहिये। अद्याहोपंचमेकाले मिथ्याहगवुष्टपूरिते । हीनसंहननानां च मुनीनां चंचलात्मनाम् ॥७७॥ द्वित्रितुर्यादि संख्येनसमुदायेन क्षेमकृत् । प्रोक्तोवासो विहारश्च व्युत्सर्ग करणाविकः ॥७॥ सर्वो यति-शुभाचारो यत्याचारो जिनेश्वरः। आचारगुणचिवृद्ध यैनान्यथा कार्य कोटिभिः ॥७९॥ यतोत्र विषमेकाले शरीरेचानकोटके। निसर्गचंचले चित्ते सत्त्व होनेऽखिले जने ॥५०॥ जायतकाकिनां नवनिविघ्न व्रतादिकः । स्वप्नेपि न मनः शुद्धिः निष्कलंकं न दीक्षणम् ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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