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________________ ७७८ ] [ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : दुर्भग, दुस्वर और अनादेय आदि परिवर्तमान अशुभप्रकृतियों के बंध के कारणभूत कषायों के उदय स्थानों को संक्लेशस्थान कहते हैं ( धवल पु० ११ पृ० २०८ ) । इसी दृष्टि से मिथ्यादृष्टि के भी शुभोपयोग हो सकता है जो मात्र पुण्यबन्ध का कारण है । किन्तु एक दूसरी दृष्टि है जिसमें मिथ्यात्व को हिंसादि से भी अधिक पाप कहा गया अर्थात् मिथ्यात्व के समान अन्य कोई पाप नहीं, क्योंकि यह अनन्त संसार का कारण है और सम्यक्त्व के समान अन्य कोई पुण्य नहीं, क्योंकि निज व पर का विवेक ( भेद विज्ञान ) प्रगट होने पर समस्त दुःख विलय को प्राप्त हो जाते हैं । पं० दौलतरामजी ने कहा भी है 'बाहर नारक कृत दु:ख भुजे अन्तर सुख रस गटागटी' । इस दृष्टि से जब तक सम्यग्दर्शनरूपी पुण्य प्रगट नहीं हुआ उससमय तक वह जीव दुःखी है और उसके अशुभोपयोग है, किन्तु सम्यग्दर्शन उत्पन्न होते ही वास्तविक सुख की रुचि प्रतीति, श्रद्धा हो जाने से वह जीव शुभोपयोगी हो जाता है। प्रवचनसार गाथा ९ की टीका में श्री जयसेन आचार्य ने कहा भी है- "मिथ्यात्वगुणस्थान, सासादन गुणस्थान और सम्यग्मिथ्यात्व इन तीन गुणस्थानों में तरतमता से प्रशुभोपयोग है । उसके आगे असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत इन तीन गुणस्थानों में तरतमता से शुभोपयोग है । इसके पश्चात् अप्रमत्तसंयत से क्षीणकषाय गुणस्थान तक तरतमता से शुद्धोपयोग है । सयोगी और अयोगोजिन इन दो गुणस्थानों में शुद्धोपयोग का फल है ।" इसीप्रकार वृहद द्रव्यसंग्रह गाथा ३४ की संस्कृत टीका में कहा गया है- " मिध्यादृष्टि सासादन और मिश्र, इन तीनों गुणस्थानों में ऊपर-ऊपर मन्दता से अशुभोपयोग होता है । उसके आगे असंयतसम्यग्दृष्टि, श्रावक और प्रमत्तसंयत, इन तीन गुणस्थानों में, परम्परा से शुद्धोपयोग का साधक, ऐसा शुभोपयोग तारतम्य से ऊपर-ऊपर होता है । तदनन्तर भ्रप्रमत्तसंयतादि क्षीणकषायतक ६ गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेदसे विवक्षित एकदेश शुद्धनयरूप शुद्धउपयोग वर्तता है ।" मिथ्यात्वादि तीन गुणस्थानों में जहां पर मिथ्यात्वरूपी पाप है वहाँ पर शुभोपयोग कैसे संभव है । अतः इस दृष्टि की अपेक्षा से मिथ्याष्टि के शुभोपयोग का निषेध किया गया । अनेकान्त की दृष्टि में दोनों कथन सुघटित हो जाते हैं । एकदृष्टि में मिथ्यात्व गौण और दूसरी दृष्टि में मिथ्यात्व की मुख्यता है । -जै. ग. 27-6-63 / IX / मो. ला. सेठी एकल विहार निषेध शंका - वर्तमान पंचमकाल में क्या दिगम्बर साधु या ऐलक व क्षुल्लक एकल-बिहारी हो सकते हैं ? समाधान - श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने मूलाचार समाचार अधिकार में यह वर्णन किया है कि किस प्रकार का मुनि एकल बिहारी हो सकता है तवसुत्तसत्तएगत्त-भाव संघडणधिदिसमग्गो य । पविआ आगमवलिओ एयविहारी अगुण्णादो ॥ २८ ॥ अर्थ — अनशनादि बारह प्रकार के तप हैं । बारहअंग को सूत्र कहते हैं । काल और क्षेत्र के अनुरूप आगम को भी सूत्र कहते हैं । प्रायश्चित्तादि ग्रन्थों को भी सूत्र कहते हैं । सत्त्वशरीर और हाडों को मजबूतपना अथवा मनोबल अथवा सत्त्व कहते हैं । एकत्व शरीरादिक से भिन्नस्वरूप ऐसे प्रात्मा का विचार करना, आत्मा में रति करनेरूप भाव-शुभ परिणाम । यह शुभ परिणाम मनोबल आदि का कार्य है। संहनन -हाड़ों की और त्वचा की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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