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________________ ७७४ । । रतनचन्द जैन मुख्तार । नवनवेयक देवों को सम्यग्दर्शन ही होता है अथवा मिथ्यावर्शन भी होता है ? साथ-साथ जहां तक मेरी सूक्ष्मबुद्धि है अहमिन्द्र आदि देव दो भव को प्राप्त करके नियम से मोक्ष जाते हैं ऐसा भी जैन शास्त्र बतलाते हैं। यदि अहमिन्द्र आदि देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं तथा वो भव के बाद नियम से मोक्ष जाते हैं इस कथन को सही मानतो फिर दूसरा कथन कि द्रव्यलिंगी मुनि और अभव्य कभी मोक्ष नहीं जा सकता, यह मानना मेरा दिल स्वीकार नहीं करता । अतः आशा है आप इस शंका का समाधान विश्लेषण पूर्वक करेंगे। समाधान-अभव्य कभी मोक्ष नहीं जा सकता, किन्तु द्रव्यलिंगी मुनि के विषय में ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि द्रव्यलिङ्गी मुनि भव्य-प्रभव्य दोनों प्रकार के होते हैं अथवा सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि दोनों प्रकार के होते हैं। नवन वेयक में अहमिन्द्र सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं [धवल पु० २] । विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित तथा अनुदिश विमानों के अहमिन्द्र द्विचरम अर्थात् दो भव धारण करके मोक्ष जाते हैं-मोक्षशास्त्र अध्याय ४ सूत्र २६ किन्तु नवग्रंवेयक के अहमिन्द्रों के लिये ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि नवन वेयक तक अभव्य का उत्पाद भी सम्भव है । -जं. ग. 29-7-65/IX/ मो. ला. जन (कथंचित्) सम्यक्त्व बिना भी अन्त: बाह्य परिग्रह में कमी सम्भव है शंका-बिना सम्यग्दर्शन परिग्रह-विषयक मूर्छा में कुछ कमी सम्भव हो सकती है या नहीं? यदि संभव है तो वह अंतरंग परिग्रह में संभव है या बाह्य परिग्रह में ? समाधान-सम्यग्दर्शन के बिना भी द्रव्यलिङ्गी मिथ्यादृष्टि मुनि के अंतरंग व बहिरंग परिग्रह में कमी सम्भव है। मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगीमुनि के बाह्य परिग्रह तो है ही नहीं, किन्तु अंतरंगपरिग्रह अर्थात् मिथ्यात्व व कषाय के अनुभागोदय में कमी हो जाने से अर्थात् द्विस्थानिक उदय होने से अंतरंग प्रात्म परिणामों में परिग्रह में तीवमच्छी नहीं रहती है। अन्यथा मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगीमुनि नवग्रंधेयक तक उत्पन्न नहीं हो सकता। अंतोकोडाकोडी विट्ठारणे ठिदिरसाण जं करणं । पाउग्गलद्धिणामा भव्वाभन्वेसु सामग्णा ॥७॥ [लब्धिसार] द्रव्यकर्मों का स्थितिघात करके अतः कोडाकोड़ी मात्र रखे और अप्रशस्तकों की फलदान शक्ति को घटाकर द्विस्थानीय करदे, वह प्रायोगलब्धि है, जो सामान्य रीति से भव्यजीव और अभव्यजीव दोनों के हो हो सकती है। -जै. ग. 10-8-72/X/ र. ला. जैन, मेरठ द्रव्यलिंगी भी प्रणम्य है शंका-आचार्य प्रणीत ग्रंथों में दलिगी मुनि को सम्यग्दृष्टि धावक नमस्कार करे ऐसा कहीं कथन भाया है? समाधान-श्री सोमदेव आचार्य ने उपासकाध्ययन में इस प्रकार कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012009
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages918
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size20 MB
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